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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक के समागम से अर्थात् असंख्यात समय मिलकर जितना काल होता है, उसे एक आवलिका कहते हैं । संख्येय आवलिका का एक उच्छ्वास होता है और संख्येय आवलिका का एक निःश्वास होता है। सूत्र-३०४
हृष्टपुष्ट, वृद्धावस्था और व्याधि से रहित प्राथी का एक उच्छ्वास और एक निःश्वास-(ये दोनों मिलकर) एक प्राण कहलाता है। सूत्र-३०५, ३०६
सात प्राणों का एक स्तोक होता है । सात स्तोकों का एक लव होता है । ७७ लवों का एक मुहूर्त कहा गया है। अथवा ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है, ऐसा समस्त अनन्तज्ञानियों ने देखा है। सूत्र-३०७
इस मुहूर्त के अनुसार तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है । पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है । दो पक्षों का एक मास होता है। दो मासों की एक ऋतु होती है। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। दो अयन का एक संवत्सर (वर्ष) होता है । पाँच संवत्सर का एक युग होता है। बीस युग का एक सौ वर्ष होता है । दस वर्षशत का एक वर्षसहस्त्र होता है। सौ वर्षसहस्त्रों का एक वर्षशतसहस्त्र होता है । चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग होता है | चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है। ८४ लाख पूर्व का एक त्रुटितांग होता है और ८४ लाख त्रुटितांग का एक त्रुटित होता है । इस प्रकार पहले की राशि को ८४ लाख से गुणा करने से उत्तरोत्तर राशियाँ बनती हैं। - अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका। इस संख्या तक गणित है । यह गणित का विषय है । इसके बाद औपमिक काल है।
भगवन् ! वह औपमिक (काल) क्या है ? गौतम ! दो प्रकार का है। -पल्योपम और सागरोपम । भगवन् ! पल्योपम तथा सागरोपम क्या है? सूत्र-३०८
(हे गौतम !) जो सुतीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा भी छेदा-भेदा न जा सके ऐसे परमाणु को सिद्ध भगवान समस्त प्रमाणों का आदिभूत प्रमाण कहते हैं। सूत्र-३०९
__ऐसे अनन्त परमाणुपुद्गलों के समुदाय की समितियों के समागम से एक उच्छ्लक्ष्णलक्षिणका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है । आठ उच्छ्लक्ष्णश्लक्ष्णिका के मिलने से एक श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका होती है । आठ श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका के मिलने से एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु मिलने से एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओं के मिलने से एक रथरेणु और आठ रथरेणुओं के मिलने से देवकुरु - उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है, तथा उस आठ बालागों से हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । उस आठ बालानों से हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । उस आठ बालाग्रों से पूर्वविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । पूर्वविदेह के मनुष्यों के आठ बालागों से एक लिक्षा, आठ लिक्षा से एक यूका, आठ यूका से एक यवमध्य और आठ यवमध्य से एक अंगुल होता है । इस प्रकार के छह अंगुल का एक पाद, बारह अंगुल की एक वितस्ति, चौबीस अंगुल का एक हाथ, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि, छियानवे अंगुल का दण्ड, धनुप, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है। दो हजार धनुष का एक गाऊ होता है और चार गाऊ का एक योजन होता है । इस योजन के परिणाम से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा, तिगुणी से अधिक परिधि वाला एक पल्य हो, उस पल्य में एक दिन के उगे हुए, दो दिन के उगे हुए, तीन दिन के उगे हुए, और अधिक से अधिक सात दिन के उगे हुए करोड़ों बालाग्र किनारे तक ऐसे ढूंस-ठूस कर भरे हों, इकट्ठे किये हों, अत्यन्त भरे हों कि उन बालानों को अग्नि न जला सके और हवा उन्हें उड़ा कर न ले जा सके; वे बालाग्र सड़े नहीं, न
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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