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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक अथवा अनादि-अनन्त है ? गौतम ! कितने ही जीवों का कर्मोपचय सादि-सान्त है, कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है और कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है, किन्तु जीवों का कर्मोपचय सादि-अनन्त नहीं है । भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! ईर्यापथिक-बन्धक का कर्मोपचय सादि-सान्त है, भवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, अभवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है । इसी कारण हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा है।
भगवन् ! क्या वस्त्र सादि-सान्त है ? इत्यादि पूर्वोक्त रूप से चार भंग करके प्रश्न करना चाहिए । गौतम ! वस्त्र सादि-सान्त है: शेष तीन भंगों का वस्त्र में निषेध करना चाहिए।
भगवन् ! जैसे वस्त्र आदि-सान्त है, किन्तु सादि-अनन्त नहीं है, अनादि-सान्त नहीं है और न अनादि-अनन्त है, वैसे जीवों के लिए भी चारों भंगों को लेकर प्रश्न करना चाहिए-गौतम ! कितने ही जीव सादि-सान्त हैं, कितने ही जीव सादि-अनन्त हैं, कईं जीव अनादि-सान्त हैं और कितनेक अनादि-अनन्त हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य तथा देव गति और आगति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं; सिद्धगति की अपेक्षा से सिद्धजीव सादि-अनन्त हैं; लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादि-सान्त हैं और संसार की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीव अनादि-अनन्त हैं। सूत्र - २८३
भगवन ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई है ? गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय ।
भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म की बन्धस्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेधकाल जानना । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी जानना । वेदनीय कर्म की जघन्य (बन्ध-) स्थिति दो समय की है, उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की जाननी चाहिए मोहनीय कर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। सात हजार वर्ष का अबाधाकाल है । अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल जानना चाहिए। __आयुष्यकर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक तैंतीस सागरोपम की है। इसका कर्मनिषेक काल (तैंतीस सागरोपम का तथा शेष) अबाधाकाल जानना चाहिए। नामकर्म
और गोत्र कर्म की बन्धस्थिति जघन्य आठ महत की और उत्कष्ट २० कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है । उस अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेक काल होता है। अन्तरायकर्म के विषय में ज्ञानावरणीय कर्म की तरह समझ लेना चाहिए। सूत्र-२८४
भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या स्त्री बाँधती है ? पुरुष बाँधता है, अथवा नपुंसक बाँधता है ? अथवा नो-स्त्रीनोपुरुष-नोनपुंसक बाँधता है ? गौतम ! ज्ञानावरणीयकर्म को स्त्री भी बाँधती है, पुरुष भी बाँधता है और नपुंसक भी बाँधता है, परन्तु नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक होता है, वह कदाचित् बाँधता है, कदाचित् नहीं बाँधता । इस प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों के विषय में समझना चाहिए।
भगवन् ! आयुष्यकर्म को क्या स्त्री बाँधती है, पुरुष बाँधता है, नपुंसक बाँधता है अथवा नोस्त्री-नोपुरुषनोनपुंसक बाँधता है ? गौतम ! आयुष्यकर्म स्त्री कदाचित् बाँधती है और कदाचित् नहीं बाँधती । इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक के विषय में भी कहना चाहिए । नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक आयुष्यकर्म को नहीं बाँधता।।
भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म क्या संयत बाँधता है, असंयत बाँधता है, संयता-संयत बाँधता है अथवा नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत बाँधता है ? गौतम ! संयत कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बाँधता, किन्तु असंयत बाँधता है, संयतासंयत भी बाँधता है, परन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयता-संयत नहीं बाँधता । इस प्रकार आयुष्यकर्म
नशमशान
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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