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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक इस अंग का अध्ययन करे अध्येता ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस अंग में चरण (मूल गुणों) तथा करण (उत्तर गुणों) का कथन किया गया है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की गई है । उनका निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है यह सूत्रकृताङ्ग का परिचय है । सूत्र-२१७
स्थानाङ्ग क्या है-इसमें क्या वर्णन है ?
जिसमें जीवादि पदार्थ प्रतिपाद्य रूप से स्थान प्राप्त करते हैं, वह स्थानाङ्ग है । इस के द्वारा स्वसमय स्थापित-सिद्ध किये जाते हैं, पर-समय स्थापित किये जाते हैं, स्वसमय-परसमय स्थापित किये जाते हैं । जीव स्थापित किये जाते हैं, अजीव स्थापित किये जाते हैं, जीव-अजीव स्थापित किये जाते हैं । लोक स्थापित किया जाता है, अलोक स्थापित किया जाता है और लोक-अलोक दोनों स्थापित किये जाते हैं।
स्थापनाङ्ग में जीव आदि पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यायों का निरूपण किया गया है। सूत्र - २१८
तथा शैलों (पर्वतों) का गंगा आदि महानदियों का, समुद्रों, सूर्यों, भवनों, विमानों, आकरों, सामान्य नदियों, चक्रवर्ती की निधियों, एवं पुरुषों की अनेक जातियों का स्वरों के भेदों, गोत्रों और ज्योतिष्क देवों के संचार का वर्णन किया गया है। सूत्र - २१९
तथा एक-एक प्रकार के पदार्थों का, दो-दो प्रकार के पदार्थों का यावत् दश-दश प्रकार के पदार्थों का कथन किया गया है । जीवों का, पुदगलों का तथा लोक में अवस्थित धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी प्ररूपण किया गया है।
स्थानाङ्ग की वाचनाएं परीत (सीमित) हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ़ (छन्दोविशेष) संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं और संग्रहणियाँ संख्यात हैं।
यह स्थानाङ्ग अंग की अपेक्षा तीसरा अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन है, इक्कीस उद्देशनकाल है, (इक्कीस समुद्देशन काल हैं ।) पद-गणना की अपेक्षा इसमें बहत्तर हजार पद हैं । संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं । अनन्त स्थावर हैं । द्रव्य-दृष्टि से सर्वभाव शाश्वत हैं, पर्याय-दृष्टि से अनित्य हैं, निबद्ध हैं, निकाचित (दृढ़ किये गए) हैं, जिन-प्रज्ञप्त हैं । इन सब भावों का इस अंग में कथन किया जाता है, प्रज्ञापन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, निदर्शन किया जाता है और उपदर्शन किया जाता है । इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार चरण और करण प्ररूपणा के द्वारा वस्तु का कथन प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है । यह तीसरे स्थानाङ्ग का परिचय है। सूत्र - २२०
समवायाङ्ग क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ?
समवायाङ्ग में स्वसमय सूचित किये जाते हैं, परसमय सूचित किये जाते हैं और स्वसमय-परसमय सूचित किये जाते हैं । जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं और जीव-अजीव सूचित किये जाते हैं। लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोक-अलोक सूचित किया जाता है।
समवायाङ्ग के द्वारा एक, दो, तीन को आदि लेकर एक-एक स्थान की परिवृद्धि करते हुए शत, सहस्त्र और कोटाकोटी तक के कितने ही पदार्थों का और द्वादशांग गणिपिटक के पल्लवानों (पर्यायों के प्रमाण) का कथन किया जाता है । सौ तक के स्थानों का, तथा बारह अंगरूप में विस्तार को प्राप्त, जगत के जीवों के हितकारक भगवान श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार किया जाता है । इस समवायाङ्ग में नाना प्रकार के भेद-प्रभेद वाले जीव और अजीव पदार्थ वर्णित हैं । तथा विस्तार से अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्त्वों का, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गणों के आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास-संख्या, उनके आयाम-विष्कम्भ का प्रमाण, उपपात (जन्म), च्यवन (मरण), अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद), उपयोग, योग (इन्द्रिय), कषाय, नाना प्रकार की
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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