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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र-४, 'समवाय'
समवाय/ सूत्रांक
समवाय-१२ सूत्र-२०
बारह भिक्षु-प्रतिमाएं कही गई हैं । जैसे-एकमासिकी भिक्षुप्रतिमा, दो मासिकी भिक्षुप्रतिमा, तीन मासिकी भिक्षुप्रतिमा, चार मासिकी भिक्षुप्रतिमा, पाँच मासिकी भिक्षुप्रतिमा, छह मासिकी भिक्षुप्रतिमा, सात मासिकी भिक्षुप्रतिमा, प्रथम सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमा, द्वीतिय सप्तरात्रि-दिवा प्रतिमा, तृतीय सप्तरात्रि दिवा प्रतिमा, अहोरात्रिक भिक्षुप्रतिमा और एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमा । सूत्र - २१. २२
सम्भोग बारह प्रकार का है-१. उपधि-विषयक सम्भोग, २. श्रुत-विषयक सम्भोग, ३. भक्त-पान विषयक सम्भोग, ४. अंजली-प्रग्रह सम्भोग, ५. दान-विषयक सम्भोग, ६. निकाचन-विषयक सम्भोग, ७. अभ्युत्थानविषयक सम्भोग । ८. कृतिकर्म-करण सम्भोग, ९. वैयावृत्य-करण सम्भोग, १०. समवसरण-सम्भोग, ११. संनिषद्या-सम्भोग और १२. कथा-प्रबन्धन सम्भोग । सूत्र- २३, २४
कृतिकर्म बारह आवर्त वाला कहा गया है । जैसे-कृतिकर्म में दो अवनत (नमस्कार), यथाजात रूप का धारण, बारह आवर्त, चार शिरोनति, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण होता है। सूत्र - २५
जम्बूद्वीप के पूर्वदिशावर्ती विजयद्वार के स्वामी विजयदेव की विजया राजधानी बारह लाख योजन आयाम -विष्कम्भ वाली है । राम नाम के बलदेव बारह सौ वर्ष पूर्ण आयु का पालन कर देवत्व को प्राप्त हुए । मन्दर पर्वत की चूलिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है । जम्बूद्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है।
सर्व जघन्य रात्रि (सब से छोटी रात) बारह मुहूर्त की होती है । इसी प्रकार सबसे छोटा दिन भी बारह मुहर्त्त का जानना चाहिए।
सर्वार्थसिद्ध महाविमान की उपरिम स्तूपिका (चूलिका) से बारह योजन ऊपर ईषत् प्राग्भार नामक पृथ्वी कही गई है । ईषत् प्राग्भार पृथ्वी के बारह नाम कहे गए हैं । जैसे-ईषत् पृथ्वी, ईषत् प्राग्भार पृथ्वी, तनु पृथ्वी, तनु-तरी पृथ्वी, सिद्ध पृथ्वी, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोकप्रतिपूरणा और लोकाग्रचूलिका
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। पाँचवी धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है । लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति बारह सागरोपम है । वहाँ जो देव माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, कम्बु, कम्बुग्रीव, पुंख, सुपुंख, महापुंख, पुंड, सुपुंड, महापुंड, नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है । वे देव छह मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों के बारह हजार वर्ष के बाद आहार की ईच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
समवाय-१२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (समवाय) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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