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आगम सूत्र ४, अंगसूत्र- ४, 'समवाय '
समवाय १०
समवाय / सूत्रांक
सूत्र - १४
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श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है । जैसे - क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास |
श्रुत
चित्त-समाधि के दश स्थान कहे गए हैं। जैसे-जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ भाषित ' और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित्त की समाधि या शान्ति के उत्पन्न होने का पहला स्थान है (१) । जैसा पहले कभी नहीं देखा, ऐसे यथातथ्य स्वप्न का देखना चित्त-समाधि का दूसरा स्थान है (२) । जैसा पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा पूर्व भव का स्मरण करने वाला संज्ञिज्ञान होना यह चित्त-समाधि का तीसरा स्थान है। पूर्व भव का स्मरण होने पर संवेग और निर्वेद के साथ चित्त में परम प्रशमभाव जागृत होता है (३) । जैसा पहले कभी नहीं हुआ, ऐसा देव-दर्शन होना, देवों की दिव्य वैभव-परिवार आदिरूप ऋद्धि का देखना, देवों की दिव्य द्युति ( शरीर और आभूषणादि की दीप्ति) का देखना और दिव्य देवानुभाव ( उत्तम विक्रियादि के प्रभाव) को देखना यह चित्त-समाधि का चौथा स्थान है, क्योंकि ऐसा देव-दर्शन होने पर धर्म में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है (४) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न होना वह चित्तसमाधि का पाँचवा स्थान है। अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर मन में एक अपूर्व शान्ति और प्रसन्नता प्रकट होती है। (५) ।
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जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक को प्रत्यक्ष देखने वाला अवधिदर्शन उत्पन्न होना यह चित्तसमाधि का छठा स्थान है (६)। जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा (अढ़ाई द्वीप समुद्रवर्ती संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक) जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का सातवा स्थान है (७) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष (त्रिकालवर्ती पर्यायों के साथ) जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का आठवा स्थान हे (८) । जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा ( सर्व चराचर ) लोक को देखने वाला केवल दर्शन उत्पन्न होना, यह चित्त-समाधि का नौवा स्थान है (९) । सर्व दुःखों के विनाशक केवलिमरण से मरना यह चित्त-समाधि का दशवा स्थान है (१०) ।
इसके होने पर यह आत्मा सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो सिद्ध बुद्ध होकर अनन्त सुख को प्राप्त हो
जाता है।
मन्दर (सुमेरु) पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कम्भ (विस्तार) वाला कहा गया है।
अरिष्टनेमि तीर्थंकर दश धनुष ऊंचे थे। कृष्ण वासुदेव दश धनुष ऊंचे थे। राम बलदेव दश धनुष ऊंचे थे।
सूत्र १५
दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गए हैं, यथा- मृगशिर, आर्द्रा, पुष्य, तीनों पूर्वाएं (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपदा) मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा ।
सूत्र - १६
अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग के लिए दश प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) उपस्थित रहते हैं। जैसे
सूत्र - १७
मद्यांग, भृंग, तूर्यांग, दीपांग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अनग्नांग ।
सूत्र - १८
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की स्थिति दस पल्योपम की कही गई है। चौथी नरक पृथ्वी में दस लाख नरकावास हैं। चौथी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति दस सागरोपम की होती है । पाँचवी पृथ्वी में किन्हीं - किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम कही गई है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (समवाय) आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद"
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कितनेक असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। असुरेन्द्रों को छोड़कर कितनेक शेष भवनवासी देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की
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