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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - २२० तीन प्रकार की कल्प स्थिति है, यथा-सामायिक कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, निर्विशमान, कल्पस्थिति । अथवा तीन प्रकार की कल्पस्थिति कही गई हैं, यथा-निर्विष्ट कल्पस्थिति, जिनकल्प स्थिति, स्थविर कल्पस्थिति। सूत्र - २२१ नारक जीवों के तीन शरीर कहे गए हैं, यथा-वैक्रिय, तैजस और कार्मण । असुरकुमारों के तीन शरीर नैरयिकों के समान कहे गए हैं, इसी तरह सब देवों के हैं। पृथ्वीकाय के तीन शरीर कहे गए हैं, यथा-औदारिक, तैजस और कार्मण । इसी तरह वायुकाय को छोड़कर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त तीन शरीर समझने चाहिए। सूत्र - २२२ गुरु सम्बन्धी तीन प्रत्यनीक प्रतिकूल आचरण करने वाले कहे गए हैं, यथा-आचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, स्थविर का प्रत्यनीक । गति सम्बन्धी तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं, यथा-इहलोक-प्रत्यनीक, परलोक-प्रत्यनीक, उभयलोक प्रत्यनीक समूह की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं, यथा-कुल प्रत्यनीक, गण-प्रत्यनीक, संघ-प्रत्यनीक । अनुकम्पा की अपेक्षा से तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं, यथा-तपस्वी-प्रत्यनीक, ग्लान-प्रत्यनीक, शैक्ष नवदीक्षित प्रत्यनीक। ___ भाव की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं, यथा-ज्ञान-प्रत्यनीक, दर्शन-प्रत्यनीक, चारित्र-प्रत्यनीक । श्रुत की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं, यथा-सूत्र प्रत्यनीक, अर्थ-प्रत्यनीक, तदुभय-प्रत्यनीक । सूत्र - २२३ तीन अंग पिता के वीर्य से निष्पन्न कहे गए हैं, यथा-हड्डी, हड्डी की मिंजा और केश-मूंछ,रोम नख । तीन अंग माता के आर्तव से निष्पन्न कहे हैं, यथा-माँस, रक्त और कपाल का भेजा, अथवा-भेजे का फिप्फिस माँस विशेष । सूत्र-२२४ तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा वाला और महापर्यवसान वाला होता है, यथा-कब मैं अल्प या अधिक श्रुत का अध्ययन करूँगा, कब मैं एकलविहार प्रतिमा को अंगीकार करके विचरूँगा, कब मैं अन्तिम मारणान्तिक संलेखना से भूषित होकर आहार पानी का त्याग करके पादपोपगमन संथारा अंगीकार करके मृत्यु की ईच्छा नहीं करता हुआ विचरूँगा । इन तीन कारणों से तीनों भावना प्रकट करता हुआ अथवा चिन्तन पर्यालोचन करता हुआ निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। तीनों कारणों से श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान करने वाला होता है, यथा-कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह को छोडूंगा, कब मैं मुँडित होकर गृहस्थ से अनगार धर्म में दीक्षित होऊंगा, कब मैं अन्तिम मारणा-न्तिक संलेखना भूषणा से भूषित होकर, आहार-पानी का त्याग करके पादपोपगमन संथारा करके मृत्यु की ईच्छा नहीं करता हुआ विचरूँगा । इस प्रकार शुद्ध मन से, शुद्ध वचन से और शुद्ध काया से पर्यालोचन करता हुआ या उक्त तीनों भावना प्रकट करता हुआ श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। सूत्र-२२५ तीन प्रकार से पुद्गल की गति में प्रतिघात होना कहा गया है, यथा-एक परमाणु-पुद्गल का दूसरे परमाणुपुद्गल से टकराने के कारण गति में प्रतिघात होता है, रूक्ष होने से गति मैं प्रतिघात होता है, लोकान्त में गति का प्रतिघात होता है। सूत्र - २२६ चक्षुष्मान् नेत्रवाले तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-एक नेत्र वाले, दो नेत्र वाले और तीन नेत्र वाले । छद्मस्थ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 44
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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