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________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक तीन कारणों से देव पश्चात्ताप करते हैं, यथा-अहो ! मैंने बल होते हुए, शक्ति होते हुए, पौरुष-पराक्रम होते हुए भी निरुपद्रवता और सुभिक्ष होने पर भी आचार्य और उपाध्याय के विद्यमान होने पर और नीरोगी शरीर होने पर भी शास्त्रों का अधिक अध्ययन नहीं किया। अहो ! मैं विषयों का प्यासा बनकर इहलोक में ही फँसा रहा और परलोक से विमुख बना रहा जिससे मैं दीर्घ श्रमण पर्याय का पालन नहीं कर सका । अहो ! ऋद्धि, रस और रूप के गर्व में फँसकर और भोगों में आसक्त होकर मैंने विशुद्ध चारित्र का स्पर्श भी नहीं किया। सूत्र-१९२ तीन कारणों से देव - मैं यहाँ से च्युत होऊंगा यह जानते हैं, यथा-विमान और आभरणों को कान्तिहीन देखकर, कल्पवृक्ष को म्लान होता हुआ देखकर, अपनी तेजोलेश्या को क्षीण होती हुई जानकर। तीन कारणों से देव उद्वेग पाते हैं, यथा-अरे मुझे इस प्रकार की मिली हुई, प्राप्त हुई और सम्मुख आई हुई दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्यशक्ति छोड़नी पड़ेगी। अरे! मुझे माता के ऋतु और पिता के वीर्य के सम्मिश्रण का प्रथम आहार करना पड़ेगा। अरे ! मुझे माता के जठर के मलयम, अशुचिमय, उद्वेगमय और भयंकर गर्भावास में रहना पड़ेगा। सूत्र - १९३ विमान तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण । इन में जो गोल विमान हैं वे पुष्कर कर्णिका के आकार के होते हैं । उनके चारों ओर प्राकार होता है और प्रवेश के लिए एक द्वार होता है। उनमें जो त्रिकोण विमान हैं वे सिंघाड़े के आकार के, दोनों तरफ परकोटा वाले, एक तरफ वेदिका वाले और तीन द्वार वाले कहे गए हैं। उनमें जो चतुष्कोण विमान हैं वे अखाड़े के आकार के हैं और सब तरफ वेदिका से घिरे हुए हैं तथा चार द्वार वाले कहे गए हैं। देव विमान तीनके आधार पर स्थित है, यथा-घनोदधि प्रतिष्ठित, घनवात प्रतिष्ठित, आकाश प्रतिष्ठित | विमान तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-अवस्थित, वैक्रेय के द्वारा निष्पादित, पारियानिक आवागमन के लिए वाहन रूप में काम आने वाले। सूत्र-१९४ नैरयिक तीन प्रकार के कहे गए हैं, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि । इस प्रकार विकलेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त समझ लेना चाहिए। तीन दुर्गतियाँ कही गई हैं, नरक दुर्गति, तिर्यंचयोनिक दुर्गति और मनुष्य दुर्गति । तीन सद्गतियाँ कही गई हैं, यथा-सिद्ध सद्गति, देव सद्गति और मनुष्य सद्गति।। तीन दुर्गति प्राप्त कहे गए हैं, यथा-नैरयिक दुर्गति प्राप्त, तिर्यंचयोनिक दुर्गति प्राप्त, मनुष्य दुर्गति प्राप्त । तीन सद्गति प्राप्त कहे गए हैं, यथा-सिद्धसद्गति प्राप्त, देवसद्गति प्राप्त, मनुष्यसद्गति प्राप्त । सूत्र-१९५ चतुर्थभक्त एक उपवास करने वाले मुनि को तीन प्रकार का जल लेना कल्पता है, आटे का धोवन, उबाली हुई भाजी पर सिंचा गया जल, चावल का धोवन । छट्ठ भक्त दो उपवास करने वाले मुनि को तीन प्रकार का जल लेना कल्पता है, यथा-तिल का धोवन, तुष का धोवन, जौ का धोवन । अष्टभक्त तीन उपवास करने वाले मुनि को तीन प्रकार का जल लेना कल्पता है, ओसामान, छाछ के ऊपर का पानी, शुद्ध उष्णजल। भोजन स्थान में अर्पित किया हुआ आहार तीन प्रकार का है, यथा-फलिखोपहृत, शुद्धोपहृत, संसृष्टो-पहृत । तीन प्रकार का आहार दाता द्वारा दिया गया कहा गया है, यथा-देने वाला हाथ से ग्रहण कर देवे, आहार के बर्तन से भोजन के बर्तन में रख कर देवे, बचे हुए अन्न को पुनः बर्तन में रखते समय देवे। तीन प्रकार की ऊनोदरी कही गई है, यथा-उपकरण कम करना, आहार पानी कम करना, कषाय त्याग रूप भाव ऊनोदरी । उपकरण ऊणोदरी तीन प्रकार की कही गई है, यथा-एक वस्त्र, एक पात्र, संयमी संमत उपाधि धारण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 39
SR No.034669
Book TitleAgam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size4 MB
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