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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक उदकयोनिक उदकजीवों में उदकरूप में जन्म लेते हैं । वे जीव उन उदकयोनिक उदकों के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार ग्रहण करते हैं और उन्हें अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन उदकयोनिक उदकों के अनेक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श एवं संस्थान वाले और भी शरीर होते हैं, ऐसा प्ररूपित है। इस संसार में अपने पूर्वकृत कर्मों के उदय से उदकयोनिक उदकों में आकर उनमें त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन उदकयोनि वाले उदकों के स्नेह का आहार करते हैं । वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन उदकयोनिक त्रसप्राणियों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, ऐसा बताया है। सूत्र - ६९१ इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर वहाँ किये हुए कर्मोदयवशात् नाना प्रकार के त्रसस्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन विभिन्न प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं | उन त्रस-स्थावरयोनिक अग्निकायों के दूसरे भी शरीर बताए गए हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि के होते हैं । शेष तीन आलापक उदक के आलापकों के समान समझना । सूत्र-६९२ इस संसार में कितने ही जीव पूर्वजन्म में नाना प्रकार की योनियों में आकर वहाँ किये हुए अपने कर्म के प्रभाव से त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में वायुकाय के रूप में उत्पन्न होते हैं । वायुकाय के सम्बन्ध में शेष बातें तथा चार आलापक अग्निकाय समान समझना । सूत्र - ६९३-६९७ इस संसार में कितने ही जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हए कर्म के प्रभाव से पृथ्वीकाय में आकर अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के सचित्त या अचित्त शरीरों में पृथ्वी, शर्करा या बालू के रूप में उत्पन्न होते हैं । इस विषय में निम्न गाथाओं के अनुसार जानना:-- पृथ्वी, शर्करा, बालू, पथ्थर, शिला, नमक, लोहा, रांगा, तांबा, चाँदी, शीशा, सोना और वज्र । तथा हड़ताल, हींगलू, मनसिल, सासक, अंजन, प्रवाल, अभ्रपटल, अभ्रबालुका, ये सब पृथ्वीकाय के भेद हैं गोमेदक रत्न, रुचकतरत्न, अंकरत्न, स्फटिकरत्न, लोहिताक्षरत्न, मरकतरत्न, मसारगल्ल, भुजपरिमोच-करत्न तथा इन्द्रनीलमणि । चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त एवं सूर्यकांत ये मणियों के भेद हैं । सूत्र-६९८ इन गाथाओं में उक्त जो मणि, रत्न आदि कहे गए हैं, उन में वे जीव उत्पन्न होते हैं । वे जीव अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार करते हैं । उन त्रस और स्थावरों से उत्पन्न प्राणियों के दूसरे शरीर भी नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि की अपेक्षा से बताए गए हैं। शेष तीन आलापक जलकायिक जीव के आलापकों के समान ही समझना । सूत्र - ६९९ समस्त प्राणी, सर्व भूत, सर्व सत्त्व और सर्व जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं वे स्थित रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं । वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं, एवं वे शरीर का ही आहार करते हैं । वे अपने-अपने कर्म का अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस-उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान कारण है। उनकी गति और स्थिति भी कर्म अनुसार होती है। वे कर्म के ही प्रभाव से सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए दुःख के भागी होते हैं । हे शिष्यो ! ऐसा ही जानो, और इस प्रकार जानकर सदा आहारगुप्त, ज्ञान-दर्शन-चारित्रसहित, समितियुक्त एवं संयमपालनमें सदा यत्नशील बनो। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 91
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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