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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक तक कि एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का-सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं । ऐसा जानकर समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्व कि हिंसा नहीं करनी चाहिए, उन्हें बलात् अपनी आज्ञा का पालन नहीं कराना चाहिए, न उन्हें बलात् पकड़कर या दास-दासी आदि के रूप में खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न करना चाहिए। इसलिए मैं कहता हूँ-भूतकाल में जो भी अर्हन्त हो चूके, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर हैं, तथा जो भी भविष्य में होंगे; वे सभी अर्हन्त भगवान ऐसा ही उपदेश देते हैं; ऐसा ही कहते हैं, ऐसा ही बताते हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़कर या खरीदकर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न करना चाहिए । यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है । समस्त लोक को केवल-ज्ञान के प्रकाश में जानकर जीवों के खेद को या क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थंकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार वह भिक्षु प्राणातिपात से लेकर परिग्रह-पर्यन्त पाँचों आश्रवों से विरत हो, दाँतों को साफ न करे, आँखों में अंजन न लगाए, वमन न करे, तथा अपने वस्त्रों या आवासस्थान को सुगन्धित न करे और धूम्रपान न करे। वह भिक्ष सावध क्रियाओं से रहित, जीवों का अहिंसक, क्रोधरहित, निर्मानी, अमायी, निर्लोभी, उपशान्त एवं परिनिवृत्त होकर रहे। वह अपनी क्रिया से इहलोक-परलोक में काम-भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा न करे, (जैसे कि)-यह जो ज्ञान मैंने जाना-देखा है, सूना है अथवा मनन किया है, एवं विशिष्ट रूप से अभ्यस्त किया है, तथा यह जो मैने तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि चारित्र का सम्यक् आचरण किया है, एवं मोक्षयात्रा का तथा शरीर-निर्वाह के लिए अल्प मात्रा में शुद्ध आहार ग्रहणरूप धर्म का पालन किया है, इन सब सुकार्यों के फलस्वरूप यहाँ से शरीर छोड़ने के पश्चात् परलोक में मैं देव हो जाऊं, समस्त कामभोग मेरे अधीन हो जाएं, मैं अणिमा आदि सिद्धियों से युक्त हो जाऊं, एवं सब दुःखों तथा अशुभकर्मों से रहित हो जाऊं; क्योंकि विशिष्ट तपश्चर्या आदि के होते हुए भी कभी अणिमादि सिद्धि प्राप्त हो जाती है, कभी नहीं भी होती। जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, रूपों, गन्धों, रसों, एवं कोमल स्पर्शों से अमूर्च्छित रहता है, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, संयम में अरति, असंयम में रति, मायामृषा एवं मिथ्या-दर्शन रूप शल्य से विरत रहता है। इस कारण से वह भिक्ष महान कर्मों के आदान से रहित हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता है, तथा पापों से विरत हो जाता है। जो ये त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है । इस कारण से वह साधु महान कर्मों के आदान से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संयम में उद्यत रहता है तथा पापकर्मों से निवृत्त हो जाता है । जो ये सचित्त या अचित्त कामभोग हैं, वह भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह नहीं करता, न दूसरों से परिग्रह कराता है, और न ही उनका परिग्रह करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करता है । इस कारण से वह भिक्षु महान कर्मों के आदान से मुक्त हो जाता है यावत् पापकर्मों से विरत हो जाता है। जो यह साम्परायिक कर्म-बन्ध किया जाता है, उसे भी वह भिक्षु स्वयं नहीं करता, न दूसरों से कराता है, और न ही साम्परायिक कर्म-बन्धन करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है । इस कारण वह भिक्षु महान कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, वह शुद्ध संयम में रत और पापों से विरत रहता है । यदि वह भिक्षु यह जान जाए कि अमुक श्रावक ने किसी निष्परिग्रह साधर्मिक साधु को दान देने के उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का आरम्भ करके आहार बनाया है, खरीदा है, उधार लिया है, बलात् छीन कर लिया है, स्वामी से पूछे बिना ही ले लिया है, साधु के सम्मुख लाया हुआ है, साधु के निमित्त से बनाया हुआ है, तो ऐसा सदोष आहार वह न ले । कदाचित् भूल से ऐसा सदोष आहार ले लिया हो तो स्वयं उसका सेवन न करे, दूसरे साधुओं को भी वह आहार न मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 68
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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