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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वह अपने माता-पिता का सुपुत्र होता है । उसे दया प्रिय होती है । वह सीमंकर तथा सीमंधर होता है । वह क्षेमंकर तथा क्षेमंधर होता है । वह मनुष्यों में इन्द्र, जनपद का पिता, और जनपद का पुरोहित होता है । वह अपने राज्य या राष्ट्र की सुख-शांति के लिए सेतुकर और केतुकर होता है । वह मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुषों में वरिष्ठ, पुरुषों में सिंहसम, पुरुषों में आसीविष सर्प समान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक तुल्य, पुरुषों में श्रेष्ठ मत्तगन्धहस्ती के समान होता है । वह अत्यन्त धनाढ्य, दीप्तिमान एवं प्रसिद्ध पुरुष होता है । उसके पास विशाल विपुल भवन, शय्या, आसन, यान तथा वाहन की प्रचुरता रहती है। उसके कोष प्रचर धन, सोना, चाँदी से भरे रहते हैं। उसके यहाँ प्रचर द्रव्य की आय होती है, और व्यय भी बहुत होता है । उसके यहाँ से बहुत-से लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन-पानी दिया जाता है । उसके यहाँ बहुत-से दासी-दास, गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि पशु रहते हैं । उसके धान्य का कोठार अन्न से, धन के कोश प्रचुर द्रव्य से और आयधागार विविध शस्त्रास्त्रों से भरा रहता है । वह शक्तिशाली होता है । वह अपने शत्रुओं को दुर्बल बनाए रखता है । उसके राज्य में कंटक-चोरों, व्यभिचारियों, लूटेरों तथा उपद्रवियों एवं दुष्टों का नाश कर दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, उन्हें कुचल दिया जाता है, उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, जिससे उसका राज्य निष्कण्टक हो जाता है । उसके राज्य पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं को नष्ट कर दिया जाता है, उन्हें उखेड़ दिया जाता है, उनका मानमर्दन कर दिया जाता है, अथवा उनके पैर उखाड़ दिये जाते हैं, उन शत्रुओं को जीत लिया जाता है, उन्हें हरा दिया जाता है । उसका राज्य दर्भिक्ष और महामारी आदि के भय से विमुक्त होता है । यहाँ से लेकर जिसमें स्वचक्र-परचक्र का भय शान्त हो गया है, ऐसे राज्य का प्रशासन-पालन करता हुआ वह राजा विचरण करता है।" उस राजा की परीषद होती है । उसके सभासद-उग्र-उग्रपुत्र, भोग तथा भोगपुत्र, इक्ष्वाकु तथा इक्ष्वाकुपुत्र, ज्ञात तथा ज्ञातपुत्र, कौरव तथा कौरवपुत्र, सुभट तथा सुभटपुत्र, ब्राह्मण तथा ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवी तथा लिच्छवीपुत्र, प्रशास्तागण तथा प्रशास्तृपुत्र, सेनापति और सेनापतिपुत्र । इनमें से कोई एक धर्म में श्रद्धालु होता है । उस धर्म-श्रद्धालु पुरुष के पास श्रमण या ब्राह्मण धर्म प्राप्ति की ईच्छा से जाने का निश्चय करते हैं । किसी एक धर्म की शिक्षा देने वाले वे श्रमण और ब्राह्मण यह निश्चय करते हैं कि हम इस धर्मश्रद्धालु पुरुष के समक्ष अपने इस धर्म की प्ररूपणा करेंगे । वे उस धर्मश्रद्धालु पुरुष के पास जाकर कहते हैं-हे संसारभीरु धर्मप्रेमी ! अथवा भय से जनता के रक्षक महाराज ! मैं जो भी उत्तम धर्म की शिक्षा आप को दे रहा हूँ उसे ही आप पूर्वपुरुषों द्वारा सम्यक् प्रकार से कथित और सुप्रज्ञप्त समझें ।' वह धर्म इस प्रकार है-पादतल से ऊपर और मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तक तथा तीरछा-चमड़ी तक जो शरीर है, वही जीव है । यह शरीर ही जीव का समस्त पर्याय है । इस शरीर के जीने तक ही यह जीव जीता रहता है, शरीर के मरने पर यह नहीं जीता, शरीर के स्थित रहने तक जीव स्थित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह नष्ट हो जाता है । इसलिए जब तक शरीर है, तभी तक यह जीवन है । शरीर जब मर जाता है तब दूसरे लोग उसे जलाने ले जाते हैं, आग से शरीर के जल जाने पर हड्डियाँ कपोत वर्ण की हो जाती है । इसके पश्चात् मृत व्यक्ति को श्मशान भूमि में पहुँचाने वाले जघन्य चार पुरुष मृत शरीर को ढोने वाली मंचिका को लेकर अपने गाँवमें लौट आते हैं। ऐसी स्थितिमें यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर से भिन्न कोई जीव नामक पदार्थ नहीं है। जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादन करते हैं कि जीव पृथक् है और शरीर पृथक् है, वे इस प्रकार पृथक् पृथक् करके नहीं बता सकते कि-यह आत्मा दीर्घ है, यह ह्रस्व है, यह चन्द्रमा के समान परिमण्डलाकार है, अथवा गेंद की तरह गोल है, यह त्रिकोण है, या चतुष्कोण है, या यह षट्कोण या अष्टकोण है, यह आयत है, यह काला, नीला, लाल, पीला या श्वेत है; यह सुगन्धित है या दुर्गन्धित है, यह तिक्त है या कड़वा है अथवा कसैला, खट्टा या मीठा है; अथवा यह कर्कश है या कोमल है अथवा भारी है या हलका अथवा शीतल है या उष्ण है, स्निग्ध है अथवा रूक्ष है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 61
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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