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________________ आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक आऊंगा, किन्तु यह पुण्डरीक इस तरह उखाड़ कर नहीं लाया जा सकता जैसा कि यह व्यक्ति समझ रहा है।' ''मैं खेदज्ञ पुरुष हूँ, कुशल हूँ, हिताहित विज्ञ हूँ, परिपक्वबुद्धिसम्पन्न प्रौढ़ हूँ, तथा मेघावी हूँ, मैं नादान बच्चा नहीं हूँ, पूर्वज आचरित मार्ग पर स्थित हूँ, उस पथ का ज्ञाता हूँ; उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम को जानता हूँ | मैं अवश्य ही इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़ कर बाहर निकाल लाऊंगा, यों कहकर वह द्वितीय पुरुष उस पुष्करिणी में उतर गया । ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ता गया, त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक जल और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया । इस तरह वह भी किनारे से दूर हट गया और उस प्रधान पुण्डरीक कमल को भी प्राप्त न कर सका । यों वह न इस पार का रहा और न उस पार का रहा । यह पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फँस कर रह गया और दुःखी हो गया । यह दूसरे पुरुष का वृत्तान्त है। सूत्र-६३६ दूसरे पुरुष के पश्चात् तीसरा पुरुष पश्चिम दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उसके किनारे खड़ा हो कर उस एक महान श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को देखता है, जो विशेष रचना से युक्त यावत् पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अत्यन्त मनोहर है। वह वहाँ उन दोनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से भ्रष्ट हो चूके और उस उत्तम श्वेत कमल को भी नहीं सके, तथा जो न इस पार के रहे और न उस पार के रहे, अपितु पुष्करिणी के अधबीच में अगाध कीचड़ में ही फँस कर दुःखी हो गए थे। इसके पश्चात् उस तीसरे पुरुष ने उन दोनों पुरुषों के लिए कहा-''अहो ! ये दोनों व्यक्ति खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ नहीं है, कुशल भी नहीं है, न पण्डित हैं यावत् जिस मार्ग पर चलकर जीव अभीष्ट को सिद्ध करता है, उसे ये नहीं जानते । इसी कारण ये दोनों पुरुष ऐसा मानते थे कि हम इस उत्तम श्वेत कमल को उखाड़ कर बाहर नीकाल लाएंगे, परन्तु इस उत्तम श्वेत कमल को इस प्रकार उखाड़ लाना सरल नहीं, जितना कि ये दोनों पुरुष मानते हैं । "अलबत्ता मैं खेदज्ञ (क्षेत्रज्ञ), कुशल, पण्डित, परिपक्व बुद्धिसम्पन्न, यावत् ज्ञाता हूँ | मैं इस उत्तम श्वेत कमल को बाहर नीकाल कर ही रहूँगा, मैं यह संकल्प करके ही यहाँ आया हूँ।'' यों कहकर उस तीसरे पुरुष ने पुष्करिणी में प्रवेश किया और ज्यों-ज्यों उसने आगे कदम बढ़ाए, त्यों-त्यों उसे बहुत अधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा । अतः वह तीसरा व्यक्ति भी वहीं कीचड़ में फँस गया, अत्यन्त दुःखी हो गया । न इस पार का रहा और न उस पार का । यह तीसरे पुरुष की कथा है। सूत्र-६३७ तीसरे पुरुष के पश्चात् चौथा पुरुष उत्तर दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर, किनारे खड़ा होकर उस एक महान श्वेत कमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त यावत् मनोहर है । तथा वह वहाँ उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से बहुत दूर हट चूके हैं और श्वेत कमल तक भी नहीं पहुँच सके हैं अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फँस गए हैं । तदनन्तर उन तीनों पुरुषों के लिए उस चौथे पुरुष ने इस प्रकार कहा-''अहो ! ये तीनों पुरुष खेदज्ञ नहीं है, यावत् मार्ग की गतिविधि एवं पराक्रम के विशेषज्ञ नहीं है । इसी कारण ये लोग समझते हैं कि हम उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को उखाड़ कर ले आएंगे; किन्तु यह उत्तम श्वेत कमल इस प्रकार नहीं नीकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग मान रहे हैं।' 'मैं खेदज्ञ पुरुष हूँ, यावत् उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम का विशेषज्ञ हूँ । मैं इस प्रधान श्वेत कमल को उखाड़ कर ले आऊंगा इसी अभिप्राय से मैं कृतसंकल्प होकर यहाँ आया हूँ।'' यों कहकर वह चौथा पुरुष भी पुष्करिणी में उतरा और ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया । वह पुरुष उस पुष्करिणी के बीच में ही भारी कीचड़ में फँस कर दुःखी हो गया । अब न तो वह इस पार का रहा, न उस पार का । इस प्रकार चौथे पुरुष का भी वही हाल हुआ। सूत्र - ६३८ इसके पश्चात् राग-द्वेष रहित, संसार-सागर के तीर यावत् मार्ग की गति और पराक्रम का विशेषज्ञ तथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 59
SR No.034668
Book TitleAgam 02 Sutrakrutang Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 02, & agam_sutrakritang
File Size3 MB
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