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आगम सूत्र २, अंगसूत्र-२, 'सूत्रकृत्'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक निवृत्त । वे प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से विरत नहीं होते । वे अपने मन से कल्पना करके लोगों को सच्ची-झूठी बात इस प्रकार कहते हैं-मुझे नहीं मारना चाहिए, दूसरों को मारना चाहिए; हमें आज्ञा नहीं देनी चाहिए, परन्तु दूसरे प्राणियों को आज्ञा देनी चाहिए; हमें दास आदि बनाकर नहीं रखना चाहिए, दूसरों को रखना चाहिए, इत्यादि। इस प्रकार का उपदेश देने वाले ये लोग मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किसी असुरसंज्ञकनिकाय में किल्बिषी देव के रूप में उत्पन्न होते हैं । अथवा वे यहाँ से शरीर छोड़कर या तो बकरे की तरह मूक रूप में उत्पन्न होते हैं, या वे तामस जीव के रूप में नरकगति में उत्पन्न होते हैं । अतः वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी, वे महाकाय भी होते हैं और चिरस्थिति वाले भी । वे संख्या में भी बहुत होते हैं । इसलिए श्रमणोपासक का त्रसजीव को न मारने का प्रत्याख्यान निर्विषय है, आपका यह कथन न्याययुक्त नहीं है।
भगवान श्री गौतम ने कहा-इस संसार में बहत-से प्राणी दीर्घायु होते हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड का प्रत्याख्यान करा है । इन प्राणियों की मृत्यु पहले ही हो जाती है, और वे यहाँ से मरकर परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी; एवं वे महाकाय और चिरस्थितिक होते हैं । वे प्राणी संख्या में भी बहुत होते हैं, इसलिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान इन प्राणियों की अपेक्षा से सुप्रत्याख्यान होता है। इसलिए श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायोचित नहीं है।
भगवान श्री गौतमस्वामी ने कहा-इस जगत में बहुत-से प्राणी समायुष्क होते हैं, जिनको दण्ड देने का त्याग श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त किया है । वे प्राणी स्वयमेव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । मरकर वे परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं और वे महाकाय भी होते हैं
और समायुष्क भी । ये प्राणी संख्यामें बहुत होते हैं, इन प्राणियों के विषयमें श्रमणोपासक का अहिंसा-विषयक प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । अतः श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषयक बताना न्यायसंगत नहीं है।
गौतमस्वामीने कहा-कईं प्राणी अल्पायु होते हैं। श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त जिनको दण्ड देने का त्याग करता है । वे पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं । मरकर वे परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय भी होते हैं और अल्पायु भी । जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक अहिंसाविषयक प्रत्याख्यान करता है, वे संख्या में बहुत हैं, जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता, वे संख्या में अल्प हैं । इस प्रकार श्रमणोपासक महान त्रसकाय की हिंसा से निवृत्त हैं, फिर भी आप लोक उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय बताते हैं, अतः आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है।
भगवान गौतमस्वामी ने कहा-कईं श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, जो इस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं-हम मुण्डित होकर घरबार छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं है, न हम चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा के दिन प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का विधि अनुसार पालन करने में समर्थ हैं, और न ही हम अन्तिम समय में अपश्चिममारणान्तिक संलेखना की आराधना करते हुए विचरण करने में समर्थ हैं । हम तो सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों को ग्रहण करेंगे, हम प्रतिदिन प्रातःकाल पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में गमनागमन की मर्यादा करके या देशावकाशिक मर्यादाओं को स्वीकार करके उस मर्यादा से बाहर के सर्व प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दण्ड देना छोड़ देंगे । इस प्रकार हम समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के क्षेमंकर होंगे। सूत्र - ८०५
(१) ऐसी स्थिति में (श्रमणोपासक के व्रतग्रहण के समय) स्वीकृत मर्यादा के (अन्दर) रहने वाले जो त्रस प्राणी हैं, जिनका उसने अपने व्रतग्रहण के समय से लेकर मृत्युपर्यन्त दण्ड देने का प्रत्याख्यान किया है, वे प्राणी अपनी आयु को छोड़कर श्रमणोपासक द्वारा गृहीत मर्यादा के अन्तर क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं, तब भी श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें सुप्रत्याख्यान होता है । वे श्रावक की दिशामर्यादा से अन्दर के क्षेत्र में पहले भी त्रस थे, बाद
के अन्दर के क्षेत्र में त्रसरूप में उत्पन्न होते हैं इसलिए वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रमणोपासक के पूर्वोक्त प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना कथमपि न्याययुक्त नहीं है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (सूत्रकृत)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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