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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-७- अवग्रहप्रतिमा
उद्देशक-१ सूत्र - ४८९
मुनिदीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है-"अब मैं श्रमण बन जाऊंगा। अनगार, अकिंचन, अपुत्र, अपशु, एवं परदत्तभोजी होकर मैं अब कोई भी हिंसादि पापकर्म नहीं करूँगा । इस प्रकार संयम पालन के लिए उत्थित होकर (कहता है-) भन्ते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ।
वह साधु ग्राम यावत् राजधानी में प्रविष्ट होकर स्वयं बिना दिये हुए पदार्थ को ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन-समर्थन करे।
जिन साधुओं के साथ या जिनके पास वह प्रव्रजित हुआ है, या विचरण कर रहा है या रह रहा है, उनके भी छत्रक, दंड, पात्रक यावत् चर्मच्छेदनक आदि उपकरणों की पहले उनसे अवग्रह-अनुज्ञा लिये बिना तथा प्रतिलेखन - प्रमार्जन किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे । अपितु उनसे पहले अवग्रह-अनुज्ञा लेकर, पश्चात् उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके फिर संयमपूर्वक उस वस्तु को एक या अनेक बार ग्रहण करे। सूत्र-४९०
साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहस्थ के घरों और परिव्राजकों के आवासों में जाकर पहले साधुओं के आवास योग्य क्षेत्र भलीभाँति देख-सोचकर अवग्रह की याचना करे । उस क्षेत्र या स्थान का जो स्वामी हो, या जो वहाँ का अधिष्ठाता हो उससे इस प्रकार अवग्रह की अनुज्ञा माँगे आपकी ईच्छानुसार-जितने समय तक रहने की तथा जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे, उतने समय तक, उतने क्षेत्र में हम निवास करेंगे । यहाँ जितने समय तक आप की अनुज्ञा है, उतनी अवधि तक जितने भी अन्य साधु आएंगे, उनके लिए भी जितने क्षेत्र-काल की अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करेंगे वे भी उतने ही समय तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे, पश्चात् वे और हम विहार कर देंगे।
अवग्रह के अनुज्ञापूर्वक ग्रहण कर लेने पर फिर वह साधु क्या करे ? वहाँ कोई साधर्मिक, साम्भोगिक एवं समनोज्ञ साधु अतिथि रूप में आ जाए तो वह साधु स्वयं अपने द्वारा गवेषणा करके लाये हुए अशनादि चतुर्विध आहार को उन साधर्मिक, सांभोगिक एवं समनोज्ञ साधुओं को उपनिमंत्रित करे, किन्तु अन्य साधु द्वारा या अन्य रुग्णादि साधु के लिए लाये आहारादि को लेकर उन्हें उपनिमंत्रित न करे। सूत्र - ४९१
पथिकशाला आदि अवग्रह को अनुज्ञापूर्वक ग्रहण कर लेने पर, फिर वह साधु क्या करे ? यदि वहाँ अन्य साम्भोगिक, साधर्मिक एवं समनोज्ञ साधु अतिथि रूप में आ जाए तो जो स्वयं गवेषणा करके लाए हुए पीठ, फलक, शय्यासंस्तारक आदि हों, उन्हें उन वस्तुओं के लिए आमंत्रित करें, किन्तु जो दूसरे के द्वारा या रुग्णादि अन्य साधु के लिए लाये हुए पीठ, फलक आदि हों, उनके लिए आमंत्रित न करे।
उस धर्मशाला आदि को अवग्रहपूर्वक ग्रहण कर लेने के बाद साधु क्या करे ? जो वहाँ आसपास में गृहस्थ या गृहस्थ के पुत्र आदि हैं, उनसे कार्यवश सूई, कैंची, कानकुरेदनी, नहरनी-आदि अपने स्वयं के लिए कोई साधु प्रातिहारिक रूपसे याचना करके लाया हो तो वह उन चीजों को परस्पर एक दूसरे साधु को न दे-ले । अथवा वह दूसरे साधु को वे चीजें न सौंपे । उन वस्तुओं का यथायोग्य कार्य हो जाने पर वह उन प्रातिहारिक चीजों को लेकर उस गृहस्थ के यहाँ जाए और लम्बा हाथ करके उन चीजों को भूमि पर रखकर गृहस्थ से कहे-यह तुम्हारा अमुक पदार्थ है, यह अमुक है, इसे संभाल लो, देख लो । परन्तु उन सूई आदि वस्तुओं को साधु अपने हाथ से गृहस्थ के हाथ पर रख कर न सौंपे। सूत्र-४९२
साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह को जाने, जो सचित्त, स्निग्ध पृथ्वी यावत्, जीव-जन्तु आदि से युक्त हो, तो इस प्रकार के स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा एक बार या अनेक बार ग्रहण न करे । साधु या साध्वी यदि ऐसे अवग्रह को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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