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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक भगवान कहते हैं यह मार्ग कर्मबन्ध का कारण है।
ऐसे विषम मार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पै आदि फिसल सकता है, वह गिर सकता है। शरीर के किसी अंग-उपांग को चोट लग सकती है, त्रसजीव की भी विराधना हो सकती है, सचित्त वृक्ष आदि का अवलम्बन ले तो भी अनुचित है।
वहाँ जो भी वृक्ष, गुच्छ, झाड़ियाँ, लताएं, बेलें, तृण अथवा गहन आदि हो, उन हरितकाय का सहारा ले लेकर चले या ऊतरे अथवा वहाँ जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ माँगे । उनके हाथ का सहारा मिलने पर उसे पकड़ कर यतनापूर्वक चले या ऊतरे । इस प्रकार साधु या साध्वी को संयमपूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए।
साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार कर रहे हों, मार्ग में यदि जौ, गेहूँ आदि धान्यों के ढेर हों, बैलगाड़ियाँ या रथ पड़े हों, स्वदेश-शासक या परदेश-शासक की सेना के नाना प्रकार के पड़ाव पड़े हों, तो उन्हें देखकर यदि कोई दूसरा मार्ग हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु उस सीधे, (किन्तु दोषापत्तियुक्त) मार्ग से न जाए।
उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक से कहे- आयुष्मन् ! यह श्रमण हमारी सेना का गुप्त भेद ले रहा है, अतः इसकी बाँहें पकड़ कर खींचो । उसे घसीटो। इस पर वह सैनिक साधु को बाँहें पकड़ कर खींचने या घसीटने लगे, उस समय साधु को अपने मन में न हर्षित होना चाहिए, न रुष्ट; बल्कि उसे समभाव एवं समाधिपूर्वक सह लेना चाहिए । इस प्रकार उसे यतनापूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करते रहना चाहिए। सूत्र-४६०
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में सामने से आते हुए पथिक मिले और वे साधु से पूछे • यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? यावत् यह राजधानी कैसी है ? यहाँ पर कितने घोड़े, हाथी तथा भिखारी हैं, कितने मनुष्य निवास करते हैं? क्या इस गाँव यावत् राजधानी में प्रचुर आहार, पानी, मनुष्य एवं धान्य हैं, अथवा थोड़े ही हैं ?" इस प्रकार पूछे जाने पर साधु उनका उत्तर न दे । उन प्रातिपथिकों से भी इस प्रकार के प्रश्न न पूछे । उनके द्वारा न पूछे जाने पर भी वह ऐसी बातें न करे । अपितु संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करता रहे । यही (संयमपूर्वक विहारचर्या) उस भिक्षु या भिक्षुणी की साधुता की सर्वांगपूर्णता है; जिसके लिए सभी ज्ञानादि आचाररूप अर्थों से समित होकर साधु सदा प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-३ - उद्देशक-३ सूत्र-४६१
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी मार्ग में आने वाले उन्नत भू-भाग या टेकरे, खाइयाँ, नगर को चारों ओर से वेष्टित करने वाली नहरें, किले, नगर के मुख्य द्वार, अर्गला, अर्गलापाशक, गड्डे, गुफाएं या भूगर्भ मार्ग तथा कूटागार, प्रासाद, भूमिगृह, वृक्षों को काटछांट कर बनाए हुए गृह, पर्वतीय गुफा, वृक्ष के नीचे बना हुआ चैत्यस्थल, चैत्यमय स्तूप, लोहकार आदि की शाला, आयतन, देवालय, सभा, प्याऊ, दुकान, गोदाम, यानगृह, यान-शाला, चूने का, दर्भकर्म का, घास की चटाइयों आदि का, चर्मकर्म का, कोयले बनाने का और काष्ठकर्म का कारखाना, तथा श्मशान, पर्वत, गुफा आदि में बने हुए गृह, शान्तिकर्म गृह, पाषाणमण्डप एवं भवनगृह आदि को बाँहें बार-बार ऊपर उठाकर, यावत् ताक-ताक कर न देखे, किन्तु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करने में प्रवृत्त रहे।
ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वीयों के मार्ग में यदि कच्छ, घास के संग्रहार्थ राजकीय त्यक्त भूमि, भूमिगृह, नदी आदि से वेष्टित भू-भाग, गम्भीर, निर्जल प्रदेश का अरण्य, गहन दुर्गम वन, गहन दुर्गम पर्वत, पर्वत पर भी दुर्गम स्थान, कूप, तालाब, द्रह नदियाँ, बावड़ियाँ, पुष्करिणियाँ, दीर्घिकाएं, जलाशय, बिना खोदे तालाब, सरोवर, सरोवर की पंक्तियाँ और बहुत से मिले हुए तालाब हों तो अपनी भुजाएं ऊंची उठाकर, यावत् ताक-ताक कर न देखे। केवली भगवान कहते हैं-यह कर्मबन्ध का कारण है; (क्योंकि) ऐसा करने से जो इन स्थानों में मृग, पशु, पक्षी, साँप, सिंह, जलचर, स्थलचर, खेचर जीव रहते हैं, वे साधु की इन असंयम-मूलक चेष्टाओं को देखकर त्रास पायेंगे, वित्रस्त होंगे, किसी वाड़ की शरण चाहेंगे, वहाँ रहने वालों को साधु के विषय में शंका होगी । यह साधु हमें हटा रहा है, इस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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