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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक का विघात नहीं करना चाहिए।
पंचम भावना यों है-स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों का संवेदन करता है, किन्तु भिक्षु उन मनोज्ञअमनोज्ञ स्पर्शों में न आसक्त हो, न आरक्त हो, न गृद्ध हो, न मोहित-मूर्च्छित और अत्यासक्त हो, और न ही इष्टानिष्ट स्पर्शों में राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश करे । केवली भगवान कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर आसक्त, यावत् आत्मभाव का विघात कर बैठता है, वह शान्ति को नष्ट कर डालता है, शान्ति भंग करता है, तथा स्वयं केवलीप्ररूपित शान्तिमय धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
स्पर्शेन्द्रिय-विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है, अतः भिक्षु उन मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर उत्पन्न होने वाले राग या द्वेष का त्याग करे, यही अभीष्ट है । अतः स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक स्पर्शों का संवेदन करता है; किन्तु भिक्षु को उन पर आसक्त, यावत् अपने आत्मभाव का विघात नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाव्रत का काया से सम्यक् स्पर्श करने, पालन करने, स्वीकृत महाव्रत को पार लगाने, कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है । भगवन् ! यह है-परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाव्रत ।
इन (पूर्वोक्त) पाँच महाव्रतों और उनकी पच्चीस भावनाओं से सम्पन्न अनगार यथाश्रुत, यथाकल्प और यथामार्ग, इनका काया से सम्यक् प्रकार से स्पर्श कर, पालन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्त्व का कीर्तन करके भगवान की आज्ञा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
चूलिका-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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