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आगम सूत्र १, अंगसूत्र-१, 'आचार'
श्रुतस्कन्ध/चूलिका/अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न कराए। साधु के शरीर पर हुए व्रण के ऊपर लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण आदि विलेपन द्रव्यों का आलेपन-विलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए।
कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को प्रासुक शीतल या उष्ण जल से धोए तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए।
कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी प्रकार के शस्त्र से छेदन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही उसे वचन और काया से कराए।
कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा या विशेष रूप से छेदन करके, उसमें से मवाद या रक्त नीकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से न चाहे न ही वचन एवं काया से कराए। कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को एक बार या बार-बार पपोल कर साफ करे तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और शरीर से कराए।
यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को दबाए या परिमर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर पर तेल, घी, वसा चुपड़े, मले या मालीश करे तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए । यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर पर लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण का थोड़ा या अधिक विलेपन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
यदि कोई गृहस्थ, मुनि के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को प्रासुक शीतल और उष्ण जल से थोड़ा या बहुत बार धोए तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
यदि कोई गृहस्थ, मुनि के शरीर में हुए गंड, अर्श, पुलक अथवा भगंदर को किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष छेदन करे, मवाद या रक्त नीकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
यदि कोई गृहस्थ, साधु के शरीर से पसीना, या मैल से युक्त पसीने को मिटाए या साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न ही वचन एवं काया से कराए।
यदि कोई साधु के आँख का, कान का, दाँत का, या नख का मैल नीकाले या उसे साफ करे, तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए।
यदि कोई गृहस्थ, साधु के सिर के लंबे केशों, लंबे रोमों, भौहों एवं कांख के लंबे रोमों, गुह्य रोमों को काटे अथवा संवारे, तो साधु उसे मन से न चाहे, न ही वचन और काया से कराए । यदि कोई गृहस्थ, साधु के सिर से जूं या लीख नीकाले या सिर साफ करे, तो साधु मन से न चाहे न ही वचन और काया से ऐसा कराए।
यदि कोई गृहस्थ, साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवा कर उसके चरणों को वस्त्रादि से एक बार या बार-बार भलीभाँति पोंछकर साफ करे; साधु इसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। इसके बाद चरणों से सम्बन्धित नीचे के पूर्वोक्त ९ सूत्रों में जो पाठ कहा गया है, वह सब पाठ यहाँ भी कहना चाहिए।
यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवा कर उसको हार, अर्द्धहार, वक्षस्थल पर पहनने योग्य आभूषण, गले का आभूषण, मुकूट, लम्बी माला, सुवर्णसूत्र बाँधे या पहनाए तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से उससे ऐसा कराए । यदि कोई गृहस्थ साधु को आराम या उद्यान में ले जाकर उसके चरणों को एक बार पोंछे, बार-बार अच्छी तरह पोंछे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न वचन व काया से कराए।
इसी प्रकार साधुओं की अन्योन्यक्रिया-पारस्परिक क्रिया के विषयमें भी ये सब सूत्र पाठ समझ लेने चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(आचार) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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