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पञ्चमी विभक्ति (अपादान)
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अन्योन्याभाव भी एक प्रकार से मेरा ही क्षेत्र है । 'घटः पटो न' इसका अर्थ यही तो होता है कि घट से पट पृथक है । सापेक्षवाद भी मुझ से हो जन्य है । प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप से है, पररूप से नहीं । घट अपने घटत्व रूप से है, पटत्वादि पररूप से नहीं । संसार में यावन्मात्र पदार्थ हैं, सब परस्पर के पृथक्त्व के कारण ही स्वस्वरूप में ठहरे हुए हैं। यदि मैं न होऊँ और मेरा कार्य पृथक् परिज्ञान न हो तो कभी किसी भी चीज का ज्ञान ही न होगा । संसार और मोक्ष का क्या भेद है, यह भी तो मेरे द्वारा ही जाना जाता है।
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पूर्णभद्र वन कितना सुन्दर है ! वृक्षों पर कितने मधुर फल लगे हुए हैं ! वृक्षों के नीचे नन्हे नन्हे बालक घूम रहे हैंफल पाने की इच्छा से । परन्तु मेरे बिना फल मिल सकते हैं ? कभी नहीं । जबतक वृक्ष में अपादान न हो फल कैसे मिलें ? 'वृक्षात्फलानि पतन्ति' वाक्य मेरी प्रभुता का वर्णन कर रहा है । भगवन् ! अतएव आप मुझे ही सर्वप्रथम गौरव प्रदान करें ।
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भगवन् ! मेरा सबन्ध अनेक शब्दों के साथ हैं। मेरी छत्रछाया में अनेकानेक शब्द रहते हैं । व्याकरण - साहित्य में मेरे लिए बहुत विधायकसूत्र बनाए गए हैं। मेरे प्रयोगों से भारतीय साहित्य भरा पड़ा है ।
स्तोक", अल्प, कतिपय, कृच्छ शब्दों से भी मैं हुआ करती
४४ ङसिभ्यांभ्यस्स्तो काल्पकतिपयकृच्छ्रादसत्वे ॥ १।३।१५२ ।।
यतो द्रव्ये शब्दप्रवृत्तिः स पर्यायो गुणः सत्त्वं तेनैव रूपेणोच्यमानम
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