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पञ्चमी विभक्ति ( अपादान )
चतुर्थी विभक्ति ने जब अपना सुन्दर वक्तव्य समाप्त कर दिया तो पञ्चमी विभक्ति प्रभु की सेवा में उपस्थित हुई और अपना वक्तव्य सुनाने लगी ।
भगवन् ! मैं हूँ तो अपादान विभक्ति । नाम कुछ अच्छा नहीं है । परन्तु नाम कैसा ही हो, भाव देखना चाहिए । आत्मा के साथ अनादि काल से कर्मों का सम्बन्ध है, उससे जीवात्मा को स्वतंत्र करानेवाली मैं ही हूँ । जब कि 'रत्नत्रयान्मोक्षः ' कहा जाता है तो इससे यही सिद्धान्त निकलता है कि बद्ध आत्मा को रत्नत्रय से ही मोक्ष प्राप्त होता है । मोक्ष - प्राप्ति में रत्नत्रय हेतु है और यहाँ मेरा राज्य है । सम्यग्दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यक चारित्र रत्नत्रय कहलाते हैं। संसार में जितने भो अन्य रत्न हैं, पाषाण के टुकड़े हैं । यदि कोई वास्तविक रत्न है तो वह दर्शनादि रत्नत्रय ही है । इसी से मोक्ष प्राप्त होता है । सौभाग्य है कि रत्नत्रयान्मोक्षः जैसे महान् सिद्धान्त
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