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विशालकाय ग्रन्थ इस शैली का सबसे बड़ा चमत्कारी ग्रन्थ है । आचार्य समन्तभद्र भी आप्तमीमांसा में इसी शैली की ओर झुके हैं। उन्होंने तो कल्पना के क्षेत्र में भगवान् की ओर का प्रश्न भी पा लिया है और उसी पर समूचा ग्रंथ लिख गए हैं । अस्तु, अपना यह प्रयत्न भी उसी दिशा में होने के कारण कुछ नया नहीं है। मनोरंजन की शैली के लिए यह पद्धति कल्पित की गई है ।
यह पहला ही प्रयास है कि व्याकरण को इस शैली पर उतारा गया है । संभव है, इसमें कुछ भ्रान्तियाँ रह गई हों । अतएव विद्वान् सज्जन पुस्तक के सम्बन्ध में जो भी सूचनाएँ देंगे, उन पर सादर विचार किया जायगा तथा आवश्यक संशोधन भी कर दिया जायगा ।
हाँ, एक बात और कहनी है । पुस्तक चार वर्षं से लिखी पड़ी थी परन्तु इसका परिमार्जन न हो सका था । बिना परिमार्जन के मुद्रण का सौभाग्य भी न मिल सका । हर्ष है कि मेरे सुयोग्य शिष्य पं० श्रीहेमचन्द्रजी तथा यू० पी० प्रान्तीय पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज के सुयोग्य शिष्य कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्रजी के सत्प्रयत्न से परिमार्जन का कार्य भी बड़े सुन्दर ढंग से हो गया, एक प्रकार से पुस्तक का नया संस्करण सा हो गया । अतः उक्त दोनों विद्वान् मुनियों का सहयोग भी प्रस्तुत पुस्तक के साथ सधन्यवाद सम्बद्ध है ।
इस पुस्तक के प्रकाशन का सम्पूर्ण भार श्रीरत्नचन्द्रजी जैन एम० ए०, न्यायतीर्थ के ऊपर रहा है। इनके प्रयत्न का यह सुफल है कि यह पुस्तिका इस सुन्दर रूप में प्रकाशित हो रही है।
लुधियाना भाद्रपद शुक्ला पञ्चमी
१९९५
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उपाध्याय आत्माराम
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