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सिद्धान्तकल्पवल्ली [प्रत्यक्ष और श्रुतिमें बलाबल अस्तु घटादेरिन्द्रियवेद्यत्वमथाऽपि न विरोधः । न्यायसुधोदितरीत्या सद्बुद्धब्रह्मसत्त्वविषयत्वात् ॥ ३ ॥ संक्षेपकोक्तरीत्याऽक्षस्याऽपि घटादिसत्त्वविषयत्वम् । भवतु तथापि न तत्वावेदकता मानतेति न विरोधः ॥ ४ ॥
व्यतिरेकयोरधिष्ठानेदमंशग्रहण एवोपक्षयः, अध्यस्तरजतादेस्तु भ्रान्त्यैव प्रतिभासः, तथा सर्वत्रेन्द्रियैः सन्मात्रग्रहणम् , मायिकघटतद्भेदादेस्तु भ्रान्त्यैव प्रतिभास इति भावः ॥ २॥
अस्तु घटादिप्रपञ्चस्य प्रत्यक्षवेद्यत्वम्, तथापि न विरोधः, 'घटः सन्' इत्यादिसदबुद्धरधिष्ठानब्रह्मसत्वविषयत्वात् । सत्त्वान्तर विषयत्वकल्पने गौरवादिति मतान्तरमाह-अस्त्विति ॥ ३ ॥
प्रत्यक्षस्य घटादिगताध्यस्तसत्त्वग्राहित्वेऽपि पराविषयत्वेन तस्य न तत्त्वावेदकत्वं प्रामाण्यम् । श्रुतेस्तु तत्प्रामाण्यमस्तीति न तद्विरोध इति मतान्तरमाहसंक्षेपकेति ॥
इदमंशके ग्रहणमें उपक्षीण हो जाता है और अध्यस्त रजतादिका प्रतिभास भ्रान्तिसे ही होता है, वैसे ही सर्वत्र इन्द्रियोंसे सन्मात्रका ग्रहण होता है और मायिक घटादि तथा उसके भेद आदिका प्रतिभास तो भ्रान्तिसे ही होता है ॥ २ ॥
इस विषयमें न्यायसुधाकारका मत कहते हैं-'अस्तु' इत्यादिसे ।
घटादि प्रपञ्चमें इन्द्रियवेद्यत्व (प्रत्यक्षवेद्यत्व ) भले ही रहे, तथापि विरोध नहीं है, क्योंकि न्यायसुधामें 'घटः सन्' इस उदाहरणमें जो सद्बुद्धि होती है, वह अधिष्ठान ब्रह्मके ही सत्वको विषय करती है, कारण कि इस बुद्धिके विषय अन्य सत्त्वको माननेमें गौरव होता है, ऐसा निरूपण किया है ॥३॥
इसी विषयमें सर्वज्ञमुनिका मत दर्शाते हैं-'संक्षेपको.' इत्यादिसे ।
संक्षेपशारीरकके कथनके अनुसार यद्यपि प्रत्यक्षमें घटादिसत्त्वविषयत्व है सथापि वह घटादिगत अध्यस्त सत्त्वको ही विषय करता है, अतः पराग्विषय होनेसे उसमें तत्त्वावेदकत्वरूप प्रामाण्य नहीं है और श्रुतिमें तो तत्त्वावेदकत्वरूप प्रामाण्य के होनेसे सर्वथा विरोध नहीं है ॥४॥
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