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प्रथम स्तबक]
भाषानुवादसहिता
११. अवस्थाज्ञानसादित्वानादित्ववादः तच्चाऽनेकमवस्थाज्ञानमनादीति केचिदिच्छन्ति । निद्रासुषुप्त्यवस्थासाम्यात् सादीत्युदाहरन्त्यपरे ॥ ७० ॥ नन्वज्ञानमनादीत्यस्मिन् पक्षे कियन्निवयं स्यात् । अत्र व्यवस्थयैकज्ञानेनैकं निवत्यमित्येके ॥ ७१ ॥
तच्चाऽनेकमवस्थाज्ञानं मूलाज्ञानवदज्ञानत्वादनादीति केषांचित् मतमाहतञ्चेति । व्यावहारिकजगज्जीवावावृत्य स्वाप्नजगज्जीवौ विक्षिपन्त्या निद्राया अज्ञानावस्थात्वं प्रसिद्धम् । सुप्तेरपि न किञ्चिदवेदिषमित्यनुभवस्य कादाचित्कस्वात् सादित्वम् । तत्साम्यादन्यदप्यज्ञानावस्थारूपं सादीत्यपरेषां मतमाहनिद्रेत्यादिना ॥ ७० ॥
अनादित्वपक्षे घटे प्रथमोत्पन्नज्ञानेन तदवच्छिन्नसर्वाज्ञाननाशे पुनरावरणानापत्तिः । एकतरनाशे विनिगमकाभाव इत्याशयेन शङ्कते-नन्विति । यथा न्यायनये सत्स्वप्यनेकेषु तद्विषयभ्रमसंशयादिहेतुज्ञानप्रागभावेष्वेकज्ञानेनैक एव
वे अवस्थाज्ञान अनेक हैं और मूलाज्ञानकी नाई उनमें भी अज्ञानत्व है, अतः वे अनादि हैं, ऐसा कई एक कहते हैं। और अन्य मतवाले व्यावहारिक जगत् और जीवका आवरण करके स्वप्नके जगत् और जीवको विक्षिप्त करनेवाली निद्रा तो अज्ञानावस्था प्रसिद्ध है; और सुषुप्ति भी 'मैंने कुछ भी नहीं जाना' ऐसा अनुभव कादाचित्क होनेसे सादि है; इन दोनोंके समान होनेसे अन्य अज्ञानावस्थारूप अज्ञान भी सादि है, ऐसा कई एकका मन्तव्य है ।। ७० ॥ ___ अज्ञानको अनादि माननेमें घटमें प्रथमोत्पन्न ज्ञानसे तदवच्छिन्न सब अज्ञानोंका नाश हो जानेपर पुनः आवरण नहीं होगा; और किसी एक अज्ञानका नाश होता है, ऐसा माननेमें कोई विनिगमक नहीं है, इस अभिप्रायसे शङ्का करते हैं-'नन्वज्ञान०' इत्यादिसे। ___ अज्ञानको जो अनादि मानता है, उसके पक्षमें (ज्ञानसे) कितने अज्ञानकी निवृत्ति होगी ? इसका कुछ ठीक खुलासा या व्यवस्था नहीं होती; अतः इस विषयमें व्यवस्थाके लिए एक ज्ञानसे एक अज्ञानकी ही निवृत्ति होती है। ऐसा कई एक मानते हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे न्यायमतमें यद्यपि अज्ञानपदार्थविषयक भ्रम और संशयादिके हेतु ज्ञानप्रागभाव अनेक हैं तो भी एक ज्ञानसे एक
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