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सिद्धान्तकल्पवल्ली [जीवेश्वरस्वरूपनिर्णयवाद
३. जीवेश्वरस्वरूपनिर्णयवादः जीवेशयोः स्वरूपं निरूप्यतेऽस्यामविद्यायाम् । चित्प्रतिबिम्बो जीवो मायायां तावदीश इति ॥ २८ ॥
___wwwwwwwwww स्यादिति मतान्तरमाह-मायैवेति । मायैव मुख्यया वृत्त्योपादानम् । ब्रह्म तु उपादानमायाधारतया गौण्योपादानम् , न मुख्यतः । 'न तस्य कार्य करणं च विद्यते' इति श्रुतेस्तनिषेधपरत्वात् । इत्यतस्तादृशमेवोपादानत्वं लक्षणमिति भावः ॥ २७ ॥ ___ इत्थं मतभेदेन जीवेश्वरावुपादानमिति व्यवस्थाप्य तयोः स्वरूपं निरूपयितुमाह-जीवेति ॥ २८॥
केवल माया ही मुख्य वृत्तिसे प्रपञ्चकी उपादान है, ब्रह्म तो मायाका आधारभूत होनेसे गौणी वृत्तिसे प्रपञ्चका उपादान कहलाता है। ऐसा मुक्तावलीकार कहते हैं । अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त संक्षेपाचार्य और वाचस्पतिके मतमें 'मायां तु प्रकृति विद्यात्' इस श्वेताश्वतरकी श्रतिमें उक्त प्रकृतिशब्द गौण हो जाता है, इसलिए मायामें मुख्यत्वरूपसे उपादानत्वका प्रतिपादन करनेवाले मुक्तावलीकार कहते हैं कि मुख्यवृत्तिसे माया ही उपादान है और ब्रह्म तो उपादानभूत मायाका आश्रय होनेसे गौणी वृत्तिसे उपादान कहा जाता है, मुख्यवृत्तिसे नहीं; क्योंकि 'न तस्य कार्य करणं च विद्यते' ( इस-ब्रह्म-का कोई कार्य या करण नहीं है ) यह श्रुति ब्रह्ममें वास्तव कार्यकारणभावका निषेध करती है, अतः ब्रह्ममें ऐसा ही ( गौण ही) उपादानत्व मानना उचित है ॥ २७ ॥
उक्त प्रकारसे जीव और ईश्वरकी उपादानताकी मतभेदसे व्यवस्था दशोकर अब जीव और ईश्वरके स्वरूपनिरूपणमें मतभेद दिखलाते हैं-'जीवे.' इत्यादिसे । ___ जीव और ईश्वरके स्वरूप-निरूपणके प्रसंगमें [पञ्चदशीकार श्रीविद्यारण्य मुनिका मत ऐसा है कि ] अविद्या में जो चित्प्रतिबिम्ब है, वह जीवशब्दसे कहा जाता है और मायामें जो चित्प्रतिबिम्ब है, वह ईश्वरशब्दसे कहा जाता है । [जीव अविद्याके वशमें रहता है और ईश्वर मायाको अपने वशमें रखता है, इतना विशेष है ] ॥ २८ ॥
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