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भाषानुवादसहिता
इत्थं परमशिवेन्द्रानुग्रहभाजनसदाशिवेन्द्रकृतौ । सिद्धान्तकल्पवल्ल्यां तुर्यः स्तबकच संपूर्णः ॥ १८ ॥
चतुर्थ स्तबक ]
इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीपरमशिवेन्द्रपूज्यपाद शिष्य श्री सदाशिव मन्द्रविरचितवेदान्तसिद्धान्तकल्पवल्ल्यां चतुर्थः स्तबकः समाप्तः ॥
अम्पृष्ठेश्वरत्वादिधर्म निर्मृष्टनिखिल मेद प्रपञ्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्त सत्य परमानन्दाद्वितीयाख ण्डैकर सब्रह्मात्मनाऽवस्थानमिति परमसिद्धान्तमाह - परमार्थत इति ॥ १७ ॥
स्पष्टोऽर्थः ॥ १८ ॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमत्परम शिवेन्द्रपूज्यपादशिष्य श्रीसदाशिवब्रक्षेन्द्रपणीत श्री वेदान्तसिद्धान्तकल्पवल्लीव्याख्यायां केसरवल्ल्याख्यायां चतुर्थः स्तबकः । इति सिद्धान्तकल्पवल्ली समाप्ता ।
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गई है, वास्तवमें तो ईश्वरत्वादि धर्मोसे और निखिल भेद प्रपश्व से शून्य नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, परमानन्द, अद्वितीय और अखण्डैकरस जो ब्रह्म है, तद्रूपसे उसका अवस्थान ही परम सिद्धान्त है, ऐसा उपसंहाररूपसे प्रथकी समाप्तिमें कह देते हैं - 'परमार्थतस्तु' इत्यादिसे ।
परमार्थ में तो मुक्त जीव इश्वरत्वादि सब धर्मोंसे निर्मुक्त और नाम आदि विकल्पोंसे रहित विमल केवल ब्रह्मरूपसे ही अवस्थित होता है ॥ १७ ॥
' इत्थम्' इत्यादि । इस प्रकार परमशिवेन्द्र गुरुके अनुरहपात्र सदाशिवेन्द्रकी कृतिरूप इस सिद्धान्तकल्पवल्ली में चतुर्थ स्तबक और ( चकार से ) प्रम्थ भी सम्पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥
महामहोपाध्याय पण्डितवर श्रीहाथीभाई शास्त्रि विरचित सिद्धान्तकल्पवल्ली - भाषावादमें चतुर्थ स्तबक समाप्त |
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