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चतुर्थ स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
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५. मुक्तस्य ब्रह्मभाववादः अथ मुक्त ईश्वरः स्यादाहो शुद्धात्मनाऽवशिष्येत । अत्रैकजीववादे स शिष्यते शुद्धरूपेण ॥ १४ ॥ नानाजीवमतेऽपि प्रतिबिम्बेशानदर्शने तस्य । प्रतिबिम्बान्तरभावायोगाद्विम्बात्मनाऽस्ति परिशेषः ॥ १५ ॥
चैतन्यापरोक्ष्यवदनवच्छिन्नानन्दापरोक्ष्यमपि नाऽस्ति। अज्ञाननाशे तु चिदानन्दभेदविलयात्तदापरोक्ष्यमिति मतान्तरमाह-अज्ञानेति ॥ १३ ॥
ज्ञानफलप्राप्तौ निर्णीतायां प्राप्यस्वरूपनिर्णयाय पृच्छति-अथेति । तत्र प्रथममेकजीववादेन समाधत्ते--अत्रेत्यादिना । एकजीववादे तदेकाज्ञानकरिपतस्य जीवेश्वरविभागादिकृत्स्नभेदप्रपञ्चत्य तद्विद्योदये विलयानिर्विशेषचैतन्यरूपेणा ऽवशिष्यत इत्यर्थः ॥ १४ ॥ - नानाजीववादेऽपि मायाप्रतिबिम्ब ईश्वर इति मतेऽविद्याप्रतिबिम्बजीवस्य स्वोपाधिविनाशे प्रतिबिम्बान्तरभूतेश्वरभावप्राप्त्ययोगाद्विम्बभूतशुद्धचैतन्यात्मना परिशेषो भवतीति समाधानान्तरमाह-नानाजीवेति ॥ १५ ॥
अन्य पुरुषके चैतन्यका जैसे अपरोक्षत्व नहीं है, वैसे ही अनवच्छिन्न आनन्दका भी अपरोक्षत्व नहीं है, परन्तु अज्ञानका नाश होनेपर चैतन्य और आनन्दके भेदका लय होनेसे उस आनन्दका अपरोक्षत्व स्वयं हो जायगा; ऐसा अन्य मानते हैं । १३ ।।
_ 'अथ मुक्त' इत्यादि । ज्ञानरूप फलकी प्राप्तिका निर्णय होनेपर प्राप्यस्वरूपके निर्णयके लिए पूछते हैं-जीव मुक्त होकर ईश्वरभावको प्राप्त होता है ? अथवा शुद्धात्मभावसे अवशिष्ट रहता है ? इस विषयमें एकजीववादपक्षमें तो जीव शुद्धरूपसे रहता है, ऐसा माना जाता है, क्योंकि एकजीववादमें एक अज्ञानसे कल्पित जीवेश्वरादि सकल भेदप्रपञ्चका उस विद्याके उदयके होते ही विलय हो जानेके कारण निर्विशेष चैतन्यरूपसे वह अवशिष्ट रहता है ॥ १४ ॥ ___'नानाजीव०' इत्यादि । नाना जीववादीके मतमें भी मायाप्रतिबिम्ब ईश्वर है, इस मतमें अविद्याप्रतिबिम्ब जीवकी अपनी उपाधिभूत अविद्याका विनाश हो जानेपर प्रतिबिम्बभूत ईश्वरभावकी प्राप्तिका अयोग होनेसे बिम्बभूत शुद्धचैतन्यात्मकत्वरूपसे उसका परिशेष है ।। १५ ।।
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