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चतुर्थ स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
चित्सुखचरणास्त्वाहुर्दुःखाभावोऽपि न पुमर्थः । सुखशेषत्वात्तस्य स्वरूपसुखमेव तादृगिति ॥९॥
४. ब्रह्मानन्दस्य प्राप्यत्ववादः नित्यप्राप्तोऽप्ययमानन्दः स्वाविद्यया तिरोभूतः। तनाशे प्राप्यत इव कण्ठाभरणं यथेत्याहुः ॥१०॥ आनन्दो नास्तीति व्यवहारात संसृतौ तदप्राप्तिः । सा विद्यया निवृत्तत्याहुः प्राप्ति परे मुख्याम् ॥ ११ ॥
..........m an.ne दुःखाभावो न स्वतः पुरुषार्थः, सर्वत्र दुःखाभावस्य स्वरूपसुखामिव्यक्तिप्रतिबन्धकाभावतया सुखशेषत्वात् । स्वरूपसुखमेव पुरुषार्थ इति मतान्तरमाहचित्सुखचरणा इति ॥ ९॥
नन्वयमानन्दः प्रत्यगात्मरूपत्वानित्यप्राप्त इति कथं तत्प्राप्तिर्ज्ञानफलमित्याशङ्कायां केषांचिन्मतमाह-नित्येति । एवञ्च आनन्दस्य गौण्येव प्राप्तिनिफलमिति भावः ॥ १० ॥ ___ संसारदशायां आनन्दो नाऽस्ति न भातीति व्यवहारादावरणप्रयुक्ता काचित्तस्य
स्थिर पुरुषार्थरूप नहीं होगी, ऐसी शङ्का करके उसका उत्तर देते हैं-ऐमा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि इस अविद्यानिवृत्तिके सुख या दुःखाभाव स्वरूप न होनेसे उसमें पुरुषार्थत्व नहीं है ॥ ८ ॥
'चिन्सुख०' इत्यादि। दुःखाभाव स्वतः कोई पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि वह सुखका शेष है अर्थात् दुःखाभाव सर्वत्र स्वरूपसुखकी अभिव्यक्तिमें प्रति. बन्धकामावरूप है, अतः वह स्वरूपसुखका शेष है; इसलिए शेषोरूप स्वरूपसुख ही पुरुषार्थ है, ऐसा चित्सुखाचार्यका मत है ॥ ९॥ ___ 'नित्यप्राप्तो०' इत्यादि। यह आनन्द प्रत्यगात्मरूप होनेसे नित्यप्राप्त हो है, अतः उसकी प्राप्ति ज्ञानफल कैसे है ? ऐसी शंका करके समाधान करते हैं कि यद्यपि यह आनन्द नित्यप्राप्त ही है; तथापि स्वीय अविद्यासे वह तिरोभूत है। जब अविद्याका नाश होता है; तब विस्मृत कण्ठाभरणको नाई प्राप्त हुआ-सा अनुभूत होता है अर्थात् इस आनन्दकी गौणी ही प्राप्ति ज्ञानका फल माना जाता है ॥ १०॥ ___'आनन्दो' इत्यादि । संसारदशामें 'आनन्द है नहीं और भासता भी नहीं है, ऐसा व्यवहार होनेसे आवरणप्रयुक्त उस आनन्दकी अप्राप्ति मन्यात
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