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चतुर्थ स्तबक ]
भाषांनुवादसहिता
चतुर्थः स्तबकः
१. अविद्यालेशवादः
कोऽयमविद्यालेशो जीवन्मुक्तिहिं यदनुषङ्गेण । अत्राऽऽचख्युः कतिचिदविद्याविक्षेपशक्तिरेष इति ॥ १ ॥ अपरे क्षालितमदिराघटगन्धसमैव वासना स इति । अन्येस दग्ध वासोन्यायादनुवृत्तिभागविद्येति ॥ २ ॥
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एवं मुक्तिसाधने निर्णीते तत्फलनिरूपणं प्रकृत जीवन्मुक्ति निर्वाहका विद्यालेशपरीक्षामुखेनाऽऽरभते - कोऽयमिति । ज्ञानेनाऽविद्याया आवरणशक्त्यंश एव नश्यति ; विक्षेपशकायं शस्तु प्रारब्धेन प्रतिबद्धत्वान्न नश्यति । स एष एवाऽविद्यालेश इति तेनोत्तरमाह – अत्रेत्यादिना ॥ १ ॥
'तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थसम्यग्धी जन्ममात्रतः । अविद्या सह कार्येण नासीदस्ति भविष्यति' इति वार्तिकविरोधमाशङ्कय मतान्तरमाह - अपर इति । निराश्रय
पूर्व स्तबक में मुक्ति-साधनका निर्णय करके अब उन साधनों के फलका, प्रकृत जीवन्मुक्तिके निर्वाहक अविद्यालेशकी आलोचना के द्वारा, निरूपण करते हैं'कोsयमविद्या ० ' इत्यादिसे ।
जिस अविद्यालेशके अनुषङ्गसे जीवन्मुक्ति ( सुखानुभूति ) होती है, वह अविद्यालेश कौन है ? इस प्रश्नके उत्तर में कहते हैं कि अविद्याकी विक्षेपशक्ति ही अविद्यालेश कहलाती है अर्थात् ज्ञानसे अविद्याकी आवरणशक्ति ही निवृत्त होती है और विक्षेपशक्तिका अंश, जो प्रारब्धरूप प्रतिबन्धकसे प्रतिबद्ध होने के कारण निवृत्त नहीं होता, अतः वही - अविद्याविक्षेपशक्ति ही - अविद्यालेश है ॥ १ ॥ उपर्युक्त मतमें—
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तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थसम्यग्धी जन्ममात्रतः ।
अविद्या सह कार्येण नाऽऽसीदस्ति भविष्यति ॥
( 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यसे उत्पन्न होनेवाले सम्यक् ज्ञानके जन्ममात्रसे ही अविद्या अपने कार्यों सहित न हुई, न है और न होगी ) इस वार्त्तिकके वचन के साथ विरोध होगा, ऐसी शंका होनेपर मतान्तर दर्शाते हैं - ' अपरे ' इत्यादिसे ।
कुछ लोग कहते हैं— मदिरा वाले घटको धोनेपर भी जैसे उसमें मदिराका गन्ध
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