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सिद्धान्तकल्पवल्ली [ सुखादिके अननुसंधान में प्रयोजक
१०. जीवानां सुखाद्यननुसंधानप्रयोजकोपाधिवादः
एवमुपाधिवशेन व्यवस्थितिर्यदि भवतु नामैवम् । तदननुसंधाने कः प्रयोजकः स्यादुपाधिस्त्राssहुः ॥ ४९ ॥ भोगायतनभिदाऽननुसंधानस्य प्रयोजिकेत्येके । विश्लेषशालिभोगायतन मिदा तत्प्रयोजिकेत्यपरे ॥ ५० ॥
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ष्टचैतन्ये उपाधिमेदेन भेदकल्पना संभवतीति मणिमुकुराद्युपाधिकल्पित प्रतिबिम्बरूपाश्रयभेदादवदातश्या मत्वादिव्यवस्थेव प्रकृतेऽपि कल्पिताश्रयभेदेन सुखदुःखादिव्यवस्था सुवचेति मतान्तरमाह — इतरे त्विति ।
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एवमुपाधिभेदेन सुखदुःखादिव्यवस्थासंभवमुपपाद्य जीवानां परस्परं सुखाद्यननुसंघाने प्रयोजकोपाधिं पृच्छति - एवमिति ॥ ४९॥
उक्तमाह - भोगायतनेति । ननु हस्तपादादिशरीरावयवानां भोगायतनत्वाविशेषात् तद्भेदोऽप्यननुसंधाने प्रयोजकः स्यात् । न च इष्टापतिः, तथात्वे पादलग्नकण्टकोद्धाराय हस्तव्यापारो न स्यात् । हस्तावच्छिन्नस्य वेदनाननुसंधाना -
विरुद्ध धर्मकी व्यवस्था होती है, ऐसा नियम माननेपर भी एक ही निष्कृष्ट चैतन्यमें उपाधिके भेदसे भेदकी कल्पना हो सकती है। जैसे मणि, आदर्श आदि उपाधियों से कल्पित जो प्रतिबिम्बरूप आश्रयभेद है, उससे निर्मल और मलिन आदिकी व्यवस्था होती है, वैसे ही प्रकृतमें भी कल्पित आश्रयके भेदसे ही सुखादिकी व्यवस्था बन सकती है, ऐसा निःशङ्क कहा जा सकता है ॥ ४८ ॥
इस प्रकार उपाधिके भेदसे सुख, दुःख आदिकी व्यवस्थाका उपपादन करके जीवों के सुखादिके परस्पर अननुसन्धानमें प्रयोजक उपाधिके विषयमें प्रश्न करते हैं'एवमुपाधि०' इत्यादिसे ।
पूर्वोक्क रीति से उपाधिवशात सुखादिकी व्यवस्था यदि हो, तो भले ही हो, परन्तु जीवोंमें एकको दूसरेके सुखादिका अनुसंधान नहीं होता, इसमें प्रयोजक उपाधि कौन होगी ? इस विषय में मतभेदप्रदर्शनपूर्वक उपाधिका निरूपण करते हैं ।। ४९ ॥ 'भोगायतन ० ' इत्यादिसे । भोगायतनका ( शरीरका ) भेद सुखादिके अननुसन्धानका प्रयोजक है, ऐसा कई एक कहते हैं ।
शङ्का - शरीर के अवयवभूत हाथ, पैर आदि में भोगायतनत्वकी समानरूपसे ही स्थिति होने के कारण उनका भेद भी सुखादिके अननुसन्धानमें प्रयोजक क्यों न हो ? यदि इस बातको इष्ट मान लें, तो चरणमें लगे हुये कंटकको निका
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