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सम्यक् चारित्र उस समय प्रगट होता है जब कि पहले सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान हो जाता है । विना सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान प्रगट हुए कठिन से कठिन आचरण भी सम्यक्चारित्र नहीं कहलाता है । जैसे द्रव्यलिंगी साधुका चारित्र । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सच्चे देव सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र के यथार्थ श्रद्धानसे तथा जान लेनेसे होता है । इस वीतराग सर्वज्ञ देवके कहे हुए तत्व, द्रव्य आदिका निःशंक, निश्चय रूपसे श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मुक्ति प्राप्तिके साधन हैं । अन्यलिंगी साधुओं को वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सभ्यकुचारित्र होते नहीं हैं क्योंकि यदि उनको इन तीनोंकी प्राप्ति हो जावे तो वे अन्यलिंगी ही क्यों रहें जैनलिंगी न हो जावें ? इस कारण अन्यलिंगसे मुक्ति मानना बडी भारी गहरी भूल है ।
अन्यलिंगी साधुओंको न तो अपने आत्मस्वरूका पता है, न वे परमात्माका यथार्थ स्वरूप समझते हैं, न उनको संसार, मोक्षका यथार्थ ज्ञान है । अत एव मुक्ति हासिल करने के साधनों से भी
पूर्ण परिचित नहीं । इसी कारण उनकी अमली कार्यवाही (आचरण) और उनका उद्देश गलत हैं । कोई आत्माको कल्पित रूपसे मानता है, कोई आमाको ज्ञान आदि गुणोंसे शून्य मानता है, कोई आत्माको ब्रम्हका एक अंश समझते हैं । इसी प्रकार परमात्माको कोई अवतार - धारी, संसार में आकर संसारी जीवोंके समान कार्य करनेवाला मानते हैं, कोई अवतारधारी तो नहीं मानते किंतु उसको संसारका कर्ता हर्ता मानते हैं, कोई परमात्मा मानते ही नहीं हैं । इत्यादि ।
यह ही दशा उन अन्यलिंगी साधुओंकी मुक्ति माननेके विषय में है । कोई परमात्मा की सेवामें उसके पास पहुंचनेको मुक्ति मानता है, आर्य समाजी साधु मुक्तिमें जाकर कुछ समय पीछे फिर वहां से लौट आना मानते हैं । बौद्ध साधु आके सर्वथा नाशको मुक्ति मानते हैं, वेदांती ब्रम्हमें लय होजानेको मुक्ति कहते हैं, नैयायिक मतानुयायी ज्ञान आदि गुण आत्मा से हट जाने पर आत्माकी मुक्ति समझते हैं । इत्यादि ।
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