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तथा वे ग्रंथकार जिन मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रको त्याज्य बतलाते हैं वे मिथ्यादर्शनादिक कुगुरुमें विद्यमान रहते हुए उसे मोक्ष पहुंचा देते हैं । फिर वे कुगुरु अवंदनीय क्योंकर हुए ? और वे मिध्या दर्शनादिक त्याज्य क्यों हुए ?
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श्वेताम्बरीय साधु आत्मारामजीने अपने जैनतत्वादर्श, तत्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथमें कुगुरु तथा मिथ्यादर्शनादिककी बहुत निन्दा की है सो उन्होंने भी बहुत भारी भूल की हैं क्योंकि जो कुगुरु अपनी इच्छानुसार श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण करनेसे मुक्ति जा सकते हैं उनकी निन्दा करना सर्वथा अनुचित है ।
तथा श्वेताम्बरीय शास्त्रों में जो गुणस्थानोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिखाया है, एक प्रकारसे वह सब भी व्यर्थ है क्योंकि उस गुणस्थान प्रणाली के अनुसार जब कि मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अन्यलिंगी साधु अपनी दशामें ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है तो आगे के गुणस्थानों से और क्या विशेष लाभ होगा ?
श्वेताम्बरी भाइयोंको अन्यलिंगी साधुओं को भी अपना गुरु मानकर वंदना करना चाहिये क्योंकि वे भी श्वेताम्बरीय साधुओं के समान मोक्षसिद्धि कर सकते हैं । मोक्ष सिद्धि करने वाला ही परमगुरु होता है ।
इस प्रकार अन्यलिंगी साधुओंको मुक्ति प्राप्त कर लेनेवाला मान लेनेसे श्वेताम्वरीय शास्त्रोंका सम्पूर्ण उपदेश भी व्यर्थ हैं उससे कुछ भी विशेष सार फल नहीं मिल सकता ।
श्वेताम्वरी भाई यदि स्वतंत्र रूप से विचार करें तो उनको मालूम होगा कि अन्यलिंगसे मुक्तिकी प्राप्ति मानना इस कारण ठीक नहीं कि मुक्ति आत्माकी पूर्ण शुद्धता हो जानेपर प्राप्त होती है । आत्माकी शुद्धता पूर्ण वीतरागता में मिलती है क्योकि जब तक आत्मा के साथ राग द्वेष आदि मल लगे हुए हैं तब तक आत्माको अपनी शांत शुद्ध दशा नहीं मिल पाती । वीतरागताका मुख्य साधन सम्यक्चारित्र है ! महाव्रत, समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्षा आदि क्रियाओं का पालन करना ही सम्यक्चारित्र कहलाता है और इसी सम्यक् चारित्र से कर्मास्रव के कारण नष्ट होते हैं, कषायें शांत होने से वीतरागता पाप्त होती है ।
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