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उसी उच्चकुलीन मनुष्यशनीरमें रहा। दो हजार वर्षके स्थानपर दो वर्ष समझ लीजिये। उसके नीचगोत्रका जदय हुआ ही नहीं। उसके पीछे २७ स्थूल भवोंमें भी वह उच्चगोत्री ही होता रहा । कभी किसी स्वर्गका देव, कभी किसी स्वर्गका देव, कभी कहींका राजा, कभी कहीं ब्राह्मण हुआ। इस प्रकार उच्च कुलों में ही उत्पन्न होता रहा । यदि मरीचिकुलमें उसने महावीर स्वामीके भव तक रह सकने योग्य बडी स्थिति वाले नीचगोत्रकर्मका बंध किया था तो बीच बीचमें ऐसे उच्चगोत्री भव कदापि नहीं मिलने थे. " बीच बीचके भवोंमें तो नीचगोत्रका उदय
या नहीं किन्तु महावीर स्वामी के भवमें उस नीचगोत्रका उदय भागया " यह बात स्वयं श्वेताम्बरी कर्मग्रंथ रचयिता विद्वानोंके लेखसे ही बिलकुल असत्य साबित होती है ।
तीसरे-- इन्द्रने भी कठिन परिश्रम उठाकर क्या किया ? श्वेताम्बरीय ग्रंथोंके कथनानुसार महावीर स्वामीके आत्माका शरीरपिंड तो ब्राह्मणके वीर्य तथा ब्राह्मणीके रजसे बन गया । अब उस बने हुए तथा ८२ दिन रात तक ब्राह्मणीके रस रक्त से वृद्धि पाये हुए पिंडको इन्द्र चाहे जहां उठाकर रख देवे; पिंड बदल नहीं सकता। इस कारण इन्द्रका परिश्रम भी व्यर्थ समझना चाहिये । चौथे, इन्द्र महावीरस्वामीके नीचगोत्र कमको मेट भी कैसे सकता है । यदि इन्द्रमें अशुभ कर्म मेटनेकी शक्ति हो तो वह स्वयं कभी इन्द्रपर्यायसे मरना ही नहीं चाहिये, न उसको अपनी इन्द्राणीका मरण होने देना चाहिये । जिस बातके तीर्थकर तथा सर्व कर्मरहित सिद्धपरमेष्ठी में भी करनेकी शक्ति नहीं उसे इन्द्र करदे तब तो यों समझना चाहिये कि इन्द्र ही सबसे बड़ा परमात्मा है । फिर श्वेताम्बरी भाइयोंको इन्द्रके सिवाय अन्य किसीका पूजन भी क्यों करना चाहिये ? ___ पांचवें, इन्द्रको जब देवानंदा ब्राह्मणीके पेटमें महावीरस्वामीके अवतार लेनेका समाचार पहले (शुरू) से ही मालूम था तो फिर उसने इतने दिन ब्राह्मणीके गर्भ में उनको क्यों रहने दिया ? उसी समय उनको वहांसे क्यों नहीं हटा दिया !
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