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तीर्थकर होनेके भवमें आया जिससे कि ब्राह्मणीके पेट में अवतार लिया" यह कल्पित कथन कर्मसिद्धांत तथा चरणानुयोगके विरुद्ध है ।
प्रथम तो यह कि ब्राम्हणवर्ण शास्त्रोंने तथा संसारमें कहीं किसी ने भी नीच कुल नहीं बतलाया है। द्विजवों में भी उत्तम बतलाया है। अत एव नीच गोत्रके उदयसे ब्राह्मण कुलमें जन्म हो नहीं सकता । यदि महावीर स्वामी के जीवन नीच गोत्रका बंध ही किया था तो उनका जन्म किसी शूद्र कुलमें होना था । विशुद्ध कुल में जन्म तो उच्च गोत्रके उदयसे होता है जिसमें कि इन्द्रको चिंतातुर होनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। श्री महावीर स्वामीके गौतम आदि ब्राह्मण कुलीन जो गणधर थे सो क्या कल्पसूत्र के इस कथनानुसार नीच
कुली थे ?
श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध आचार्य आत्मारामजी ब्राह्मण ही थे उन्होंने अपने जनतत्व के ५०९ वें पृष्ठपर तथा तत्वनिर्णयप्रासादके ३६५ वें तथा ३७८ वे पृष्ठपर ब्राह्मणवर्णको उच्चवर्ण बतलाया है । भरतचक्रवर्तीने सर्वोत्तम पुरुषोंको ही ब्राह्मण वर्ण बनाया था । अत एवं महावीर स्वामीका देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में अवतार लेनको नीचगोत्रका फल कहना बडी भारी मोटी भूल है । __दुसरे कर्मसिद्धान्त इम कल्पित बातको बहुत बलपूर्वक सर्वथा असत्य सिद्ध करता है ! क्यों कि देखिये, नीचगोत्रकमकी उत्कृष्ट स्थिति २० कोडाकोडी सागर है। यदि नरीचिने अधिकसे अधिक संक्लेश परि. णाम रक्खे थे तो उसने २० कोडाकोडी सागर की स्थितिबाला नीचगोत्र कर्म बांधा होगा । यह वीस कोडाकोडी सागरकी स्थितिवाला कर्म कर्मसिद्धान्तके नियमानुसार दो हजार वर्ष पीछे ही अपना आबाधा काल टालकर उदयमें अवश्य आना चाहिये । और तदनुसार दो हजार वर्ष पीछे ही मरीचिका जन्म नीचगोत्र कर्मके उदयसे बगवर लगातार २० कोडाकोडीसागर तक नीचकुलमें ही होता रहना चाहिये था।
किन्तु ऐसा हुआ नहीं क्यों कि जिस समय उसके नीचगोत्रका बंध हुआ बताया जाता है उस समयसे लेकर करोड़ों वर्ष तक तो केवल
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