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__ अर्थात्-अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाले वैक्रियिकमिश्र और काणियोगधारी जीवके स्त्रीवेदकः उदय नहीं होता है । क्योंकि वैक्रियिक काययोगवाला अविरत सम्यग्दृष्टि जीव स्त्री नहीं होता है ।
इससे यह सिद्ध होगया कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर देवी नहीं होता है । इसके आगे इसी पृष्टमें २६ से २८ वीं तककी पंक्तियोंमें यों लिखा है____" तथा औदारिकमिश्र काययोगीने चौथे गुणठाणे स्त्री वेद अने नपुंसकवेदनो उदय न होय, ते मांडे औदारिक मिश्रयोगी सम्यादृष्टिने उपजवू नथी ते भाणी ए चौथे गुणठणे आठ चौवं शीने स्थानकें केवल पुरुषवेद विकल्पना औदारिक मिश्रयोगे आठ अष्टक भांगा होय. अहीं वे वेदना शोल भांगा प्रयेक चावीश मध्ये थी टालवा।"
अर्थात्-औदारिक मिश्र योगवालेके चौथे गुणस्थानमें स्त्रीवेद, नपुंसक वेदका उदय नहीं होता है। इन स्त्री, नपुंसक वेदोंमें औदारिक मिश्रवाला सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता है । इस कारण चौथे गुणस्थानमें आठ चौवीशीके स्थानकमें केवल पुरुषवेद विकल्पका औदारिक मिश्र योगमें आठ अष्टक भंग होता है।
इस प्रकार यह कर्मग्रंथ भी सम्यग्दृष्टि जीवका स्त्रीशरीर पाना स्पष्ट निषेध करता है। फिर अनुत्तर विमानवासी सम्यग्दृष्टि देव मरकर मल्लीकुमारी नामक स्त्री कैसे हो सकता है ? कर्मग्रंथका नियम तो कदापि पलटता नहीं । इस कारण श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर को स्त्री कहना कर्मग्रंथके विरुद्ध है। अतएव सर्वथा असत्य है। तीर्थकरका अवर्णवाद है । और यह कर्मकी रेख पर मेख मारना है।
तथा-श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कथानुसार स्त्री थे इस कारण उन्होंने अपने पहननेके लिये तपस्या करते समय साडी अवश्य रक्खी होगी । उत्कृष्ट जिनकल्पी साधुके समान समस्त वस्त्र परिग्रह छोडकर नग्न हो तपश्चरण न किया होगा । केवल देवदृष्य वस्त्रसे जो कि कंधेपर रक्खा रहता है काम न चला होगा। इस कारण परिग्रह सहित तपस्या की होगी।
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