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हो गई कि स्त्रीके वज्रऋषभ नाराच संहनन नहीं होता इसी कारण वह ऐसा प्रबल शक्तिशाली अशुभ कर्मबन्ध करने में समर्थ नहीं जिसके कारण वह सातवें नरक जा सके । किन्तु पुरुषके वज्रऋषभ नाराच संहनन होता है इसी कारण वह अपनी भारी शक्तिसे इतना घोर पाप कार्य कर सकता है जिससे कि सातवें नरक में भी चला जावे ।
इसी बात को दूसरे मार्ग से यों विचारिये कि श्वेतांबरीय ग्रंथों में १६ स्वर्गौके स्थानवर १२ ही स्वर्ग माने हैं । ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र, सतार ये चार स्वर्ग नहीं माने हैं । उनमें उत्पन्न होनेका क्रम संहननोके अनुसार प्रवचनसारोद्धार के ग्रंथ ( चौथा भाग ) संग्रहणीसूत्र में ७५ वें पृष्ठ पर १६० वीं गाथा में ऐसा लिखा है
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छेवणउ गम्मइ चउरोजा कप्प कीलियाईसु ।
चउसु दुदु कप्प बुड्ढो पढमेणं जाव सिद्धीवि ॥ १६० ॥ अत्-असंपतानाटिका संहनन वाला जीव भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी तथा चौथे स्वर्ग तक के देवों में जन्म ले सकता है । कीलक सहनधारी पांचवें छठे स्वर्गतक, अर्द्धनाराच संहननबाला सातवें आठवें स्वर्गतक, नाराच संहननबाला नौवें दशवें स्वर्गतक तथा ग्यारहवें बारहवें स्वर्गतक ऋषभनाराच संहननधारी जीव जा सकता है। इसके आगे अहमिन्द्र नौ ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर विमानों में और यहांतक मोक्षमें भी वज्रऋषमनाराचसंहननवाला ही जीव जा सकता है ।
इसके अनुसार यह सिद्ध हुआ कि कल्पातीत यानी - अहमिन्द्र विमानों में उत्पन्न होने योग्य पुण्यकर्मका संचय वज्रऋषभनाराच संहननधारी ही कर सकता है । अर्थात् वज्रऋषभनाराच संहननके सिवाय अन्य किसी संहनन से उतना घोर तपश्चरण नहीं बन सकता जिससे कि स्वर्गों के ऊपर उत्पन्न होने योग्य पुण्यकर्मका संचय हो सके ।
किन्तु स्त्री अपनी शक्ति के अनुसार घोर तपस्या करनेपर भी मरकर बारहवें ( दिगम्बर सम्प्रदाय के सिद्धांतानुसार सोलहवें ) स्वर्गसे आगे नहीं जाती है । स्वर्गौ देव जब सर्वार्थसिद्धि विमान तक उत्पन्न होते हैं तब देवियां केवल पहले दूसरे स्वगमें
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