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उत्कृष्ट ध्येय में अपवाद रहना भी संभव है, परंतु अपवादों की भी सीमा होती है । अपवाद के नामपर विरुद्ध आचार का समावेश कर डालना निष्पक्ष वृत्ति नहीं कहावेगी । जैन साधुको उत्कृष्ट दर्जेका जिनकल्पी नाम दिया वह तो स्वरूपानुरूप है । परंतु दूसरे स्थविर कल्पकी कल्पनाको खडी कर उसको गृहस्थ से भी अधिक कपडे और आहार व्यवहार में घेर देना यह सीमाका अतिरेक है । इसका पुस्तकमें काफी खुलासा किया गया है ।
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बाणभट्ट ' श्रीहर्षचरित काव्य लिखा है. उसके दूसरे उच्छ्रास पृष्ठ ३१ में, क्षमा धारियों में जिनको श्रेष्ठ दिखाते हुए 'जिनं क्षमासु' ऐसा लिखा है । और आगे ८ वें उच्छास पृष्ठ ७३ में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर साधुओंको दिखाते हुए श्वेताम्बरोंको 'श्वेतपट' शब्द से लिखा है और दिगम्बरोंको ' आहेत ' शब्द से लिखा है। देखो, 'तेषां तरुणां मध्ये नानादेशीयैः स्थानस्थानेषु स्थाणूनाश्रितैः तरुमूलानि निषेवमाणैर्वीतरागैराई तैर्मस्करिभिः श्वेतपः पाण्डुरभिक्षुभिर्भागवतैवर्णिभिः.........
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अर्थात् राजाने जंगल में जुदेजुदे धर्मवाले तपस्वियोंको देखा; उनमें वीतराग आर्हत थे और श्वेतपट भी थे । आर्हत तथा श्वेतपटके बीच में मस्करी नाम आजानेसे 'आहत' साधु श्वेतपटों से एक जुदे ठहरते हैं । अर्थात् बाणभट्ट के समय में श्वेताम्बर भी थे परन्तु वे आर्हत न कहाकर श्वेतपट कहाते और अर्हतका वारसा दिगम्बको ही प्राप्त था, यह अर्थ सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है । विद्वानोंकी अब भी यही समझ है ।
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लेखकका परिचय दिगंबर जैन समाजको है । हालमें वे मुलतान रहते हैं और व्यापार करते हैं । आपका जन्मस्थान आगरे के पास चावली ग्राम है. आपने धर्मशास्त्रका अध्ययन मोरे
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