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( ३.)
केवली भगवानका स्वरूप. अब हम संक्षेपरूपसे केवळी भगवानका स्वरूप उल्लेख करते हैं।
निस समय दशवें गुणस्थानके अंतमें अथवा बारहवें गुणस्थानके मादिमें माहनीय कर्मका और उसके अंतमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अंतराय कर्मका क्षय हो जाता है उस समय साधु तेरहवें गुणस्थानमें पहुंच जाते हैं और उनके केवलज्ञान, केबलदर्शन, अनंतसुख भोर अनंतवीर्य यह अनंतचतुथ्य उत्पन्न हो जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने से उन्हें केवली तथा सर्वज्ञ भी कहते हैं क्योंकि वे उस समय समस्त कार और समस्त लोकके समस्त पदार्थोंको एक साथ जानते हैं।
उस समय उनमें जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, माश्चर्य, पीडा, खेद, रोग, शोक, मान, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, पसीना, राग, द्वेष और मरण ये १८ दोष नहीं रहते हैं ! तथा १० अतिशय प्रगट होते हैं। उनके भासपास चारों ओर सौ योजन तक दुर्भिक्ष नहीं होता है, उनके ऊपर कोई उपसर्ग नहीं होता है, उनके कनलाहार नहीं होता है, उनके नख और केश नहीं बढते हैं, न उनके नेत्रोंके पलक झपकते हैं, उनके शरीरकी छाया भी नहीं पड़ती, वे पृथ्वीसे ऊंचे निराधार गमन करते हैं उनके भास पास रहनेवाले जातिविरोधी जीव भी विरोध भाव छोडकर प्रेमसे रहते हैं। इत्यादि । . केवही भगवानका शरीर मूत्र, पाखाना आदि मल रहित होता है, न उसमें निगोद राशि रहती है और न उसमें रक्त, मांस भादि धातुएं बनती हैं। . शुद्धम्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः । . जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ॥ - यानी-दोषरहित केवली भगवान्का शरीर शुद्ध स्फटिक मणिके समान तेजस्वी और सप्तधातु रहित होता है ।
केवली. भगवान् यद्यपि कवलाहार ( भोजन ) नहीं करते हैं किंतु सामान्तराय कर्मका क्षय हो जानेसे उनको क्षायिक लाभ नामक लब्धि प्राप्त हो जाती है इस कारण उनके शरीर पोषणके लिये प्रतिसमय
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