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इस प्रकार भोजन करनेसे केवलीके एक तो भोजन करनेकी इच्छा सिद्ध होती है जिससे कि वे प्रत्येक दिन तीसरे पहर अपने स्थान (गन्धकुटी)से उठकर उस देवच्छंदक स्थानपर जाकर बैठते हैं और भोजन करते हैं तथा भोजन करके फिर अपने स्थानपर चले आते हैं। __ दूसरे-उनके परिणामों में व्याकुलता आजाना सिद्ध होता है क्योंकि उनके परिणामों में जब भूखसे व्याकुलता होती होगी तभी वे उठकर और कार्य छोर भोजन करने जाते हैं।
तीसरे-मोजन करना केवळीके लिये इस कारण मी अनुचित सिद्ध होता है कि घे भोजन करते हुए साधारण जनताको दिखाई नहीं देते । जैसे उपदेश देते समय के सबको दिखलाई देते । बो कार्य कुछ अनुचित होता है वह ही छिपकर किया जाता है। तथा लोग उस देवच्छन्दक स्थानको जानते तो होंगे ही। तदनुसार सिंहासन खाली देखकर समझ भी लेते होंगे कि भगवान भोजन करने गये हैं।
चौथे- भोजन करनेके पीछे साधुओंको भोजन संबंधी दोष हटाने के लिये कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण करना पड़ता है सो केवली स्वयं करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तो भोजन करना दोष ठहरा । यदि नहीं करते तो भोजन बननेमें नो गृहस्थसे त्रस स्थाबर, जीवका घात हुआ तथा भोजन लानेवाले मुनिसे जाने आनेमें जो हिंसा हुई वे दोष केवली भगवान्ने कैसे दूर किये !
पांच-भोजन करनेसे उनको नीहार यानी पाखाना और पेशाब भी आता है ऐसा आप मानते हैं। किन्तु वे पाखाना तथा पेशाब करले दिखलाई नहीं देते ;
इस प्रकार भोजन करनेसे उनके शरीरमें राष्टी पेशाब सरीखे गंदे मैल और पैदा हो सकते हैं जिनके कारण अनंतमुखी केवली भगवान्को एक दूसरी घृणित आफत तयार हो गई।
१ देखो मुनि भात्मारामजी कृन वि० सं. १०५८के छपे हुए तत्वनिर्णय प्रासादका ५७१ वा पृष्ठ " अतिशयके प्रभावसे भगवंतका निहार भी मांस चक्षुओंवालेके अदृश्य होनेसे दोष नहीं है, "). . .
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