________________
( २४२ )
चारित्रमें दुर्भिक्षके कारण जो दोष उत्पन्न हो गये हैं उन दोषोंको दूर करते हुए प्रायश्चित्त ग्रहण करके शुद्ध होना आवश्यक है । ऐसा किये बिना तुम्हारी कठिन तपस्या और यह मुनिचर्या निष्फल है । जिनआज्ञाके विरुद्ध आचरण पालनेसे मिथ्यात्व भाव हृदयमें प्रवेश करता है । जिस प्रकार सफेद वस्त्र पर जरासा धब्बा भी सब किसीको दीखता है उसी प्रकार हम लोगोंकी चर्या के दोष सारे संसारको दृष्टिगोचर हैं । इस निमित्तसे संसारमें जैनधर्मका बहुत उपहास होगा।
स्थूलाचार्य का [ अपरनाम शान्ति आचार्यका ] यह उपदेश अनेक भद्र साधुओंको हितकर मालूम हुआ इस कारण उन्होंने अपने मलिन चारित्रका परिशोध करते हुए वस्त्र, लाठी, पात्र आदि उपाधि छोडकर पहले सरीखा नग्न, निग्रंथ वेश धारण कर लिया।
किन्तु कुछ साधुओंको स्थूलाचार्यका यह उपदेश ऐसा मप्रिय अनुभव हुआ जैसे वेश्या व्यसनवाले पुरुषको व्यभिचारकी निन्दा और ब्रह्मचर्यकी प्रशंसा सुनकर बुरा मालूम होता। उन्होंने स्थूलाचार्यसे कहा कि पूज्यवर ! आपका कथन सत्य है किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल भावको अपने अनुकूल देखकर प्रवृत्ति करना योग्य है । यह कलिकाल बहा विकराल काल है । इस भयानक सम्य में मनुष्योंका शरीर हीन संहनन वाला होनेसे निर्बल होता है । नग्न रहकर लज्जा, सर्दी गर्मी भादि बिकट बाधाओंको जीतना बहुत बलवान शरीरका काम है। हम लोग इस निर्बल शरीरको लेकर नग्न किस प्रकार रह सकते हैं !
स्थूलाचार्यने कहा कि यदि तुम लोग नग्न रहकर परीषह नहीं सह सकते हो तो बहुत उत्तम बात यह होगी कि मुनिचारित्र छोडकर ग्यारहवी प्रतिमाका श्रावकचारित्र धारण करो जिससे तुझारा उत्साह, इच्छा भी न गिरने पावे और जैनसाधुनोंका भी संसारमें उपहास न होने पावे । मार्ग एक ही ग्रहण करो। या तो मुनि चारित्र पालना स्वीकार हो तो ये लाठी, पात्र, वस्त्र छोडकर नग्न निग्रंथ वेश धारण करो । अथवा यदि वस्त्र नहीं छोडना चाहते हो तो ऊंची श्रेणीका गृहस्थ आचरण पालना स्वीकार करो । महाव्रतधारी जैन मुनि नाम
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com