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इस कारण दिगम्बर पंथकी उत्पत्तिके विषयों जो कथा श्वेताम्बरी ग्रंथकारोंने लिखी है वह असत्य तो है ही किन्तु उल्टी उनकी हसी कराने वाली भी तथा उनके अभिप्राय पर पानी फेरने वाली है।
संघभेदका असली कारण.
श्री भद्रबाहुकी कथा । भगवान श्री ऋषभदेवसे लेकर भगवान् महावीर स्वामी तक जो जैनधर्म एक धाराके रूपमें चला आया वढी जैनधर्म भगवान महावीरके मुक्त हुए पीछे दिगम्बर, श्वेतांबर रूपमें विभक्त कैसे होगया इसकी कथा भी बडो करुणाजनक तथा दुःख -उत्पादक है । असह्य विपत्ति शिरके ऊपर आजाने पर धीर वीर मनुष्यका हृदय भी धार्मिक पथसे किस प्रकार विचलित हो जाता है; स्वार्थी मनुष्य अपने स्वार्थपोषणके लिए संसारका पतन कर डालनेको भी अनुचित नहीं समझते इसका पूर्ण रंगीन चित्र इस कथासे प्रगट होता है । कथा इस प्रकार है ।।
आजसे २४५६ वर्षे पहले अंतिम तीर्थंकर श्री १००८ महावीर भगवान्ने मोक्ष प्राप्त की है। तदनंतर ६२ वर्षों में गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी और जंबूम्वामी ये तीन केवलज्ञानी हुए । इन तीन केवल ज्ञानियों के पीछे १०० वर्षके समयमें श्री विष्णुमुनि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोबर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली यानी पूर्णश्रुतज्ञानी हुए। इनमेंसे अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रवाहुके समयमें जो कि वीर निर्वाण संवत् १६२ अथवा विक्रम संवत्से ३०७ वर्व पहले का है, १२ वर्षका भयानक दुर्भिक्ष ( अकाल ) पड़ा था। उसी दुर्भिक्षके समय बहुतसे जैनसाधु मुनिचारित्रसे भ्रष्ट हो गये
और दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर उनमें से कुछ साधु प्रायश्चित्त लेकर फिर शुद्ध नहीं हुए। हठ करके उन्होंने अपना भ्रष्ट स्वरूप ही रक्खा। वस उन्ही भ्रष्ट साधुओंने श्वेताम्बर मतको जन्म दिया । खुलासा विवरण इस प्रकार है।
इस भारतवर्षके पौंड्रवर्द्धन देशमें कोटपर नगर था। उस नगरमें सोमशर्मा नामक एक अच्छा विद्वान ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री सोमश्री थी। उस सोमश्री के उदरसे एक अनुपम, होनहार, बुद्धिमान
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