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तीसरे - शिवभूतिने रत्नकंबल लेकर श्वेताम्बरीय सिद्धान्त के अनुसार न्याय कौनसा किया जिसको न रखनेके लिये आचार्योंने उसको कहा; क्योंकि श्वेताम्बरी ग्रंथों में सर्वत्र लिखा है कि महाव्रत धारण करते समय तीर्थंकर भी सौधर्म इन्द्रके दिये हुए दिव्य, बहुमूल्य देवदृष्य वस्त्रको अपने पास रखते हैं । शिवभूति तो उन तीर्थंकरों की अपेक्षा नीचे दर्जेका साधु था तथा उसका रत्नकंबल भी तीर्थंकरों के देवदूष्य वस्त्र से बहुत थोडे मूल्य वाला वस्त्र था ।
चौथे - आचार्वोने शिवभूतिके बिना पूछे उसका रत्नकंबल क्यों लिया ? क्या दूसरे की बस्तु बिना पूछे ग्रहण करना चोरी पाप नहीं हैं जिसके कि साधु लोग बिलकुल त्यागी होते हैं । उसमें भी आचार्य तो साधुओंको प्रायश्चित्त देनेवाले होते हैं । फिर भला उन्हें दूसरेकी बहुमूल्य बस्तु विना पूछे उठाकर चोरीका पाप करना कहांतक उचित है ? पांचवें - जब शिवभूतिसे रत्नकंबलही छुडवाना था तो उस कंबल दूर क्यों नहीं फेंक दिया; टुकडे करके निशीथिये क्यों बना दिये ? क्या निशीथिये बना देनेसे रत्नकंबलका बहुमूल्यपना न रहा ? तथा साधुको निशीथिये रत्नकंचलके बनाकर अपने पास रखने की आज्ञा भी कहां है ?
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छठे - उत्कृष्ट जिनकल्पी साधुका स्वरूप सुन कर जब शिवभूति अपने वस्त्र पात्र छोडकर नग्न रूप धारण कर उत्कृष्ट जिनकल्पी साधु हो गया तब उसने अन्याय कौनसा किया। जिससे कि श्वेताम्बरीय ग्रंथकार उसको मिध्यादृष्टि कहकर अपनी बुद्धिमानी प्रगट करते हैं । शिवभूतिने सबसे ऊंचे दर्जेका जिनकल्पी साधु बनकर साधुचर्याका उन्नत भादर्शही संसारको दिखलाया जो कि आप लोगोंके कहे अनुसार जंबूस्वामी के मुक्त हुए पीछे कठिन तपस्या के कारण भळे ही बंद हो गया था । उत्तम धर्मानुकूल कार्य करने पर मिध्यादृष्टी कहना श्वेताम्बर ग्रंथकारोंका बुद्धिसे वैर करना है ।
सातवें - शिवभूतिने नवीन पंथ ही वया चलाया ! नग्न दिगम्बर आपके कल्पसूत्र आदि ग्रंथोंके कहे अनुसार भगवान ऋष
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