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अन्य श्वेताम्बरीय ग्रंथोंने भी की है और दूसरे यदि वास्तवमें कुमुदचन्द्राचार्य ऐसे दिग्गज विद्वान न होते तो यह श्वेताम्बरीय नाटककार यहां भी उनकी विद्वत्ता की प्रशंसा कदापि न करता जैसे कि उसने आगे भी नहीं की है । इस कारण मानना पडेगा कि श्री कुमुदचन्द्राचार्य कोई ऐसे वैसे साधारण विद्वान नहीं थे किन्तु व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि विषयोंके असाधारण पंडित थे । इसी कारण उन्होंने बंगाल, मालवा आदि सर्वत्र देशोंमें बडे बडे वादियों के साथ शास्त्रार्थ करके विजय पाई थी । कहीं भी किसी से वे हारे नहीं थे।
ऐसे प्रतिवादिभयंकर श्री कुमुदचन्द्राचार्यने सिद्धरान भूपति की राजसभामें देवसूरिके साथ शास्त्रार्थ किस ढंगसे किया यह मुद्रितकुमुदचन्द्र नाटकके ४६, ४७ वें पृष्ठपर लिखा हुआ है।
कुमुदचन्द्रः-प्रयोगमुद्गृणाति ।
देवसरिः- तं दूषयित्वा ) वादिना हि द्वयं कार्य, परपक्षविक्षेपः, स्वपक्षसिद्धिश्चेति, ( स्त्रीनिर्वाण सिद्धये प्रयोगमारचयति )
( भाषार्थ )-कुमुदचन्द्र-स्त्रोमुक्तिखंडन के लिए प्रयोग कहते हैं।
देवसरि-उस प्रयोगको दूषित सिद्ध करके स्त्रीमुक्ति सिद्ध करनेके लिये प्रयोग करते हैं । वादीको परपक्षखंडन और स्वपक्षमंडन ये दोनो कार्य करने चाहिये।
कुमुदचन्द्रः-पुनरुच्यताम् । देवसरि:-प्रयोग पुनः पठति । कुमुदचन्द्रः-( सखेदकालुष्यम् ) भूयोप्यभिधीयताम् । देवसरिः-पुनः प्रकाशयति ।
अर्थात् .--( देवसरिके कहे हुए युक्तियुक्त प्रयोगको न समझ सकने के कारण ) कुमुदचन्द्रने कहा कि अपना प्रयोग फिर कहिये।
देवसूरी ने अपना प्रयोग फिर कह दिया ।
कुमुदचन्द्र-( खेदखिन्न और घबडाका प्रयोगको न समझ सकने के कारण ) प्रयोग फिर भी कहिये ।
देवसरि-फिर तीसरी बार कहते हैं ।
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