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चेति सर्वसंव्यवहारिभिरस्खलितमनुषवात्" इस प्रकार लिखा है। बुद्धिमान पुरुष विचार सकते हैं कि दोनों सूत्रोंके तात्पर्यमें तथा शब्दोंमें कुछ अन्तर नहीं है । केवल वादिदेवसरिने सूत्रमें अंतिम कुछ शब्द बढा दिये हैं।
इस प्रकार श्वेताम्बर भाचार्य वादिदेवमूरिने अपना प्रमाणनय तत्वालंकार नामक न्यायग्रंथ परीक्षामुख तथा प्रमेयकमलमार्तड नामक दिगम्बरीय ग्रंथोंके आधारसे बनाया है । आरम्भसे अंततक वादिदेवमूरिने परीक्षामुखकी छाया ग्रहण की है। कहीं कहींपर कुछ सूत्र नवीन भी निर्माण कर दिये हैं। इस कारण निष्पक्ष व्यक्तिको हृदयसे स्वीकार करना पडेगा कि वादिदेवसरिने परीक्षामुखकी नकल करके प्रमाणनयतत्वालंकार ग्रंथको बनाया है ।
वादिदेवमूरि परीक्षामुख ग्रंथके रचयिता श्रीमाणिक्यनंदि आचार्यसे तथा प्रमेयकमलमार्तडके बनाने वाले श्री प्रभाचन्द्राचार्यसे पीछे हुए हैं ऐसा श्वेतांबरीय विद्वानोंको भी ऐतिहासिक प्रमाणों के बलपर स्वीकार करना पडेगा । तदनुसार किसने किसके ग्रंथकी नकल की यह बात स्वयमेव सिद्ध हो जाती है।
श्वेताम्बरीय प्रख्यात आचार्य वादिदेवमूरिकी उद्भट विद्वत्ताका यही एक ज्वलन्त उदाहरण है कि उन्होंने 'प्रमाणनयतत्वालोकालंकार' नामक सूत्रबद्ध न्याय ग्रन्थ बनाने में स्वयं मौलिक प्रयत्न नहीं किया किन्तु झूठा यश चाहने वाले साधारण विद्वानके समान परीक्षामुख नामक दिगम्बरीय ग्रंथकी आद्योपान्त नकल कर डाली। जो विद्वान एक साधारण ग्रंथरचनामें पूर्णरूपसे किसी अन्य ग्रंथकी छाया लेकर ही कृतकार्य हो सकता है वह विद्वान चौरासी महान शास्त्रार्थोंमें विजय प्राप्त करने वाले कुमुदचन्द्राचार्य सरीखे दिग्विजयी विद्वानको शास्त्रार्थ में पराजित कैसे कर सकता है ? यह प्रश्न विचारणीय है ।
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