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इस प्रकार उक्त दोनों ग्रंथोंके तीसरे परिच्छेद का अवलोकन करने से सिद्ध होता हैं कि प्रमाणनयतत्वालंकार की शारीरिक रचना परीक्षामुखका फोटो लेकर हुई हैं ।
इसके आगे परीक्षामुखके चौथे परिच्छेद और प्रमाणनयतत्वालंकार के पांचवें परिच्छेदका मिलान किया जावे तो वे दोनों परिच्छेद आदि से अन्त तक ज्योंके त्यों मिलते हैं। सूत्र संख्या भी ८ और ९ ही है परीक्षामुखमें केवल एक सूत्र उससे अधिक है
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परीक्षामुखके पहले सूत्रमें प्रमाणके ज्ञेयविषयका स्वरूप सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय: " ऐसा बतलाया है । प्रमाणनयतत्वालंकामैं इसी सूत्रको तस्य विषयः सामान्यविशेषाद्यने कान्तात्मकं वस्तु " ऐसे लिख दिया है । पाठक महाशय समझ सकते हैं कि दोनों सूत्रों के शब्द, अर्थ, तात्पर्य उद्देश आदिमें कुछ भी अन्तर नहीं है
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इन ही परिच्छेदों के तीसरे सूत्रको देखिये परीक्षा मुखमें " सामान्यं द्वेवातिर्यगूर्ध्वताभेदात् " ऐसे लिखा है। प्रमाणनयतत्वालंकार में "सामान्यं द्विप्रकारं तिर्यक सामान्य मूर्ध्वता सामान्यञ्च" इस प्रकार लिख दिया है। द्वेषा और द्विप्रकारं शब्दोंका अर्थ एक ही है अन्तर इतना हैं कि सूत्र
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रचनाकी दृष्टिसे अक्षरलाघव के कारण अच्छा है ।
द्वेधा शब्द ही होना
इस प्रकार दोनों ग्रंथों के ये दोनों परिच्छेद भी समान ही हैं 1
उक्त दोनों ग्रंथोंमेंसे परीक्षामुखके पंचम परिच्छेद में और प्रमाणनयतत्वालंकार के षष्ठ परिच्छेद में प्रमाणका फल बतलाया गया है । यह विपय परीक्षामुखने तीन सूत्रोंमें और प्रमाणनयतत्वालोकालंकारने २२ सूत्रोंमें समाप्त किया है । इस प्रकरणमें भी परीक्षामुखका आश्रय लेकर ही प्रमाणनयतत्वालंकारका यह परिच्छेद रचा गया है | देखिये -
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परीक्षामुखका तीसरा सूत्र यः प्रमियते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः " इस प्रकार लिखा है तब इसके स्थानपर प्रमाणनयतत्वालंकार में प्रमिमीत स एवोपादते परित्यजत्युपेक्षते
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