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समन्तभद्राचार्यने ' प्रमाणपदार्थ, जीवसिद्धि ' आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि अनेक न्यायग्रंथोंकी रचना की है जिनमें प्रत्येक ग्रंथ अपने विषयका असाधारण ग्रंथ है । समन्तभद्राचार्यने न्यायका सबसे प्रधान ग्रंथ तत्वार्थसूत्रपर “ गन्धहस्तिमहाभाष्य नामक ग्रंथ चौरासी हजार ८४००० श्लोकों के परिमाण वाला लिखा है जो कि दुर्भाग्यसे आज दिन अनुपलब्ध है। ____सारांश यह है कि जैनन्यायग्रंथरचनाकी नीव समन्तभद्राचार्यने ही डाली थी । इनके पहले कोई भी जैन न्यायग्रंथ किसी श्वेताम्बर विद्वानने नहीं बनाया था । श्वेतांबरीय न्यायग्रंथके आदि विधाता सिद्धसेन दिवाकरको बतलाया जाता है जिन्होंने कि न्यायावतार ग्रंथ बनाया है। किन्तु ये सिद्धसेन समन्तभद्राचार्यक पीछे हुए हैं । क्योंकि इन्होंने समन्तभद्राचार्य वरचित रत्नकरंड श्रावकाचारका ९ वां श्लोक 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य' इत्यादि श्लोकका उल्लेग्व न्यायावतारमें मूल रूपसे लिख दिखाया है।
समन्तभद्राचार्यके पीछे श्री अकलंकदेव ' हुए । ये एक राजमंत्रीके बालब्रम्हचारी पुत्र थे । स्मरणशक्ति इनकी इतनी असाधारण थी कि एक बार पढ लेनेसे ही इनको पाठ याद हो जाता था। इसी कारण इनका नाम एकस्थ था । इनके लघु प्राता निष्कलंक भी बहुत भारी विद्वान थे। इन दोनों भ्राताओंका जीवनचरित बहुत रोचक है निष्कलंकने जैनधर्मके उद्धारके लिए प्राण दान किया था। श्री अक्लंक देवके समयमें बौद्धधर्म इस भारतवर्षमें बहुत फैला हुआ था । इस बौद्ध धर्मके प्रभावका अंत इन अकलंकदेवने किया था।
राजा हिमशीतलकी राजसभामें इन्होंने बौद्धगुरूके साथ शास्त्रार्थ किया था जिसमें थोडीसी देरमें ही वह दिग्गज विद्वान अकलंकदेवसे हार गया। फिर उसने दूसरे दिन अपनी इष्ट तारादेवीका माराधन करके उसको एक घडेमें स्थापित करके उसके द्वारा अपनी बोलीमें अकलंकदेवके साथ शास्त्रार्थ कराया जो कि बराबर ६ महिने तक चलता रहा ।
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