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श्वेताम्बरीय शास्त्रोंका निर्माण दिगम्बरीय शास्त्रोंके आधारसे
हुआ है। अब हम इस बातपर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं कि श्वेताम्बरीय ग्रंथकारोंने अपने ग्रंथोंकी रचनामें दिगम्बरीय ग्रंथोंका माधार लिया है। इस कारण हम उनको मौलिक तथा प्राचीन नहीं कह सकते । वैसे तो कोई भी ऐसा श्वेताम्बरीय ग्रंथ उपलब्ध नहीं जो कि दिगम्बरीय ग्रंथरचनाके प्रारम्भ काल से पहले का बना हुआ हो। किन्तु फिर भी जो कुछ भी श्वेताम्बरीय ग्रंथ उपलब्ध हैं उनका निर्माण दिगम्बरीय ग्रंथोंकी छाया लेकर हुआ है। यह बात सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण आदि समस्त विषयों के लिये हैं। जिन प्राचीन श्वेताम्बरीय विद्वानोंको महाप्रतिभाशाली सर्वज्ञतुल्य प्रख्यात पंडित माना जाता है स्वयं उन्होंने अपने ग्रंथों के निर्माणमें दिगम्बरीय ग्रंथोंका भाधार लिया है । इसी विषयको हम प्रकाशमें लाते हैं।
श्री १००८ महावीर स्वामीके मुक्त होजानेके पीछे तीन केवलज्ञानी हुए उनके पीछे पांच श्रुतकेवली हुए । फिर कलिकालके प्रभाव से मात्माओंमें ज्ञानशक्तिका विकाश दिनपर दिन घटने लगा जिससे कि भगवान महावीर स्वामीसे प्राप्त द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञानको धारण करनेका क्षयोपशम किसी मुनीश्वरके आत्मामें न हो पाया । इस कारण कुछ दिनोंतक कुछ ऋषि ग्यारह अंग दश पूर्वके धारक हुए । तदनन्तर पूर्वोका ज्ञान भी किसीको न रहा अतः केवल ग्यारह अंगोंको धारण करनेवाले ही पांच साधु हुए । उनके पीछे केवल एक आचारांगके ज्ञाता ही चार मुनिवर हुए। शेष दश अंग चौदह पूर्वका पूर्ण ज्ञान किसीको न रहा।
तत्पश्चात् चार ऋषीश्वर ऐसे हुए जिनको पूर्ण एक अंगका ज्ञान भी उपस्थित न रहा । वे अंग और पूर्वोके कुछ भागोंके ही ज्ञाता थे। उनमें अन्तिम मुनिका नाम श्री १०८ धरसेनाचार्य था । इन्होंने विचार किया कि मेरा भायु समय थोड़ा अवशेष है इस कारण जो कुछ
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