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शहदका सेवन पुराने रूपमें ही निषेध करना ग्रंथकारके किस अभिप्राय पर प्रकाश डालता है ? इसका विचार पाठक स्वयं करें।
इसके आगे २०१ पृष्ठपर ६१९ वें सूत्रमें लिखा गया है कि
" साधु किसी गृहस्थको मांस खाता देखकर अथवा गर्म पूड़ियां तलते देखकर शीघ्रता से दौडकर उस गृहस्थसे वे पदार्थ न मांगे। अगर किसी रोगी साधु के भोजन करने के लिये वे पदार्थ मांगे तो कुछ हानि नहीं।" ____ इसका अभिप्राय यह हुआ कि रोगी मुनिक लिये अन्य साधु मांस भी ला सकता है । इसमें आचारांगसूत्रके रचयिताको कुछ अनुचित नहीं मालूम होता है।
तदनन्तर २०६-२०७ वें पृष्ठपर ६२९ ३ तथा ६३० वें सूत्रमें बतलाया गया है कि
" साधुको यदि ऐसा मांस या मछली भोजन में किसी गृहस्थके द्वारा मिले जिसमें खाने योग्य भाग थोडा हो और फेंकने योग्य हड्डी, काटे आदि चीजें बहुत हों तो उस मांस, मछलीको न लेवे।" ___ यदि साधुको कोई गृहस्थ निमंत्रण देकर कहे कि आपको बहुत हड्डु' कांटेवाला मांस मछली चाहिये ? तो साधु कहे कि नहीं; मुझे बहुत छोडने योग्य हड्डी, कांटेवाला मांस नहीं चाहिये । यदि तुम देना चाहते हो तो खाने योग्य केवल दे दो। हड्डी आदि न दो, ऐसा कहते हुए भी यदि वह गृहस्थ उस हड्डीवाले मांस मछलीको साधु के वर्तनमें झट डाल देवे तो साधु उस गृहस्थसे कुछ न कहकर कहीं एकांतमें जाकर वह मांस मछली खा लेवे और वह हड्डी आदि छोड़ने योग्य चीजें किसी जीवजन्तु रहित स्थान में डाल देवे !
इन सूत्रोंके विषयमें टीकाकारका कहना है कि यह मांस मछली साधुको लेने के लिये किसी अनिवार्य दशाम ( लाचारीकी हालतमें ) लिखा है।
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