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चमडकी उत्पत्ति भी हिंसासे होती है इस कारण तो अहिंसा महाव्रत नष्ट हो जाता है।
प्रवचन सारोद्धारके पूर्वोक्त लेखसे यह बातें भी सिद्ध हो गई कि एक तो कपडा रखना साधुके लिये परिग्रह है और चोरोंसे उसकी रक्षा करनेकी चिन्ता साधुको प्रत्येक समय रहती है । दूसरे--श्वेताम्बर साधु
ओंको ईर्यासमितिके पालनेकी विशेष परवा नहीं। रातको भी जल्दी जल्दी सपाटेसे अंधेरेमें घूम फिर सकते हैं । तीसरे-कोमल शरीर वाला साधु जुता भी पहन सकता है। चौथे-साधु विछानेकेलिये भी अपने पास चमडा रख सकता है। पांचवे-साधु चमडा शरीरमें कपडे के समान पहन सकता है। जबकि साधुही चमडे को पहनें बिछावें तो फिर श्रावक ऐसा क्यों न करे ?
सारांश- चमडा रखनेसे साधुको निम्नलिखित दोष लगते हैं
१- चमडा रखनेसे साधुको हिंसाका दोष लगेगा क्योंकि चमडा त्रस जीवकी हिप्तासे ही पैदा होता है।
२- चमडा अपने पास रखनेसे साधुको परिग्रहका दोष भी लगता है क्योंकि चमडा संयमका उपकरण नहीं । उसका ग्रहण शरीरको सुख पहुंचानेके लिये उसमें ममत्व भावसे होता है।
३- चमडेका जूता पहननेसे साधुके ईर्या समिति नहीं बन सक्ती ।
४-चमडा जीव उत्पन्न होनेका स्थान है उस पर बैठने सोने आदिसे उन सम्मूर्च्छन जीवोंकी हिंसा मुनिको लगेगी।
५-चमडेके उठाने, रखने, सुखाने, मरोडने, तह करने, फाडने, मादिमें असंयम होता है।
६-मुनिको इच्छानुसार चमडा मिल जानेपर हर्ष और वैसा न मिलनेपर शोक होगा।
७-साधुको अपने चमडे या जूतेके चोर आदि द्वारा चोरी हो जानेपर या लुट जानेपर साधुका मन मलिन होगा।
८-हिंसा तथा अपवित्रतासे बचनेके लिये जबकि गृहस्थ मनुष्य भी पहनने, विछानेके लिये चमडा अपने पास नहीं रखता है तो महाव्रतधारी साधु उसका उपयोग करे यह निन्दनीय एवं पापजनक बात है।
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