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ब्यात्मरक्षण के लिये तथा आक्रमण करनेवाले शत्रुके प्रहारका उत्तर देने के लिये उपयुक्त साधन है । किन्तु जैनसाधु पांच महाव्रतोंके धारक होते हैं । उनके लिये चारों प्रकारकी हिंसाका परित्याग होना अनिवार्य है । वे अपने हिंसा महाव्रत के अनुसार अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले शत्रुका भी सामना नहीं कर सकते । शत्रुके प्रहार करनेपर जैन साधुको शान्ति और क्षमा धारण करनेका विधान है । अत एव कोई आवश्यकता नहीं कि साधु हिंसाके साघनरूप लाठीको अपने पास रखे ।
इसके विरुद्ध श्वेताम्बर साधु लाठी अपने पास सदा रखते हैं । यह उनके अहिंसा महाव्रतका दूषण है क्योंकि अवसर मिलने पर वे उस लाठी से हिंसा कर सकते हैं। जैसा कि उनके ग्रंथोंमें उल्लिखित कथा से भी पुष्ट होता है। देखिये श्वेताम्बरीय ' निशीथचूर्णिका' में लिखा है कि " एक साधुने अपने गुरूकी आज्ञा पाकर अपनी लाठीसे तीन सिंहको मार डाला । " यह कथा किस प्रकार लिखी हुई हैं यह हमको मालूम नहीं क्योंकि निशीथचूर्णिका ग्रंथ हमारे देखने में नहीं आया । किन्तु श्वेताम्बरीय महाव्रती साधुने गुरूकी आज्ञा से लाठी द्वारा तीन सिंहको मार डाला यह बात असत्य नहीं ऐसा हमको पूर्ण विश्वास है । क्योंकि आधुनिक प्रसिद्ध श्वेताम्बरी आचार्य आत्मानंदजी ने ( जिनको कि श्वेताम्बरी भाई ' कलिकाल सर्वज्ञ ' लिखते हैं ) स्वरचित ' सम्यक्त्वशल्योद्धार ' नामक पुस्तक के १९० तथा १९१ पृष्ठ पर स्पष्ट लिखा है कि
" जेठेने ( जेठमलनामक एक ढूंढिया विद्वानने समकितसार नामक एक पुस्तक के प्रतिवादस्वरूप आत्मारामजीने यह सम्यक्त्व शल्योद्धार नामक पुस्तक लिखी है) श्री निशीथचूर्णिका तीन सिंहके मारने का Perfare लिखा है परन्तु उस मुनिने सिंहको मारनेके भावसे लाठी नहीं मारी थी उसने तो सिंहके हटाने वास्ते यष्टि प्रहार किया था इस तरह करते हुए यदि सिंह मर गये उसमें मुनि क्या करे ? और गुरुमहाराजाने भी सिंहको जानसे मारनेके लिये नहीं कहा था उन्होंने कहा था कि जो सहजमें न हटे तो लाठीसे हटा देना । "
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