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इस कारण सारांश यह है कि लाठी या डंडा साधुके संयममें हानि पहुंचाता है। संयम पालनमें लाठीसे कुछ सहायता नहीं मिलती है । हां ! लाठोके कारण शरीरको भलवत्ता सुख मिलता है । सो यदि शरीरको ही सुख देनेका अभिप्राय हो तो गृहस्थाश्रम छोड साधु बनना व्यर्थ है । मुनिदीक्षा लेकर तो कायोत्सर्ग, कायक्लेश व्युत्सर्ग करना पडता है, २२ परीषह निश्चल रूपसे विना खेद सहनी पडती हैं । अनशन, ऊनोदर आदि तप करके शरीर कृश करना पडता है । इस कारण डंडा लेकर शरीरकी रक्षा करना मुनिचारित्रके विरुद्ध है । यदि डंडा रखने मात्रसे परम्परा लगाकर मुक्ति मिल जावे तो समझना चाहिये कि मुक्ति मिलना कुछ कठिन नहीं। जिस साधुने डंडा लिया कि दर्शन ज्ञान चारित्र उस को प्राप्त हुए और मोक्ष अपने आप मिल गई। ____ भोले भाले भाइयो ! लाठी डंडा गृहस्थों के हथियार हैं । अहिंसा महाव्रतधारी निर्भय मुनि साधुके लिये उस लाठी डंडाके कारण साधुओं के क्रोध कषायकी तीव्रता जग जाती है और कभी कभी वे, गृहस्थ स्त्री पुरुषों के ऊपर भी कहीं कहीं लाठीका हाथ झाड देते हैं । इस कारण लाठी रखना मुनि धर्मका घातक है, साधक नहीं है।
लाठी एक शस्त्र है साधु जिसके
द्वारा हिंसा कर सकते हैं। हिंसा चार प्रकारकी होती है संकल्पी, भारम्भी, उद्योगी और विरोधी । इन चार प्रकारकी हिंसाओंमें से साधारण व्रती जैन गृहस्थके संकल्पी हिंसाका त्याग होता है। शेष तीन प्रकारकी हिंसाओं का नहीं होता है । क्यों कि भोजनादि बनानेमें उसको आरम्भी हिंसा और व्यापार करनेमें उद्योगी हिंसा करनी पड़ती है। एवं शत्रुसे मात्मरक्षा, धर्मरक्षा, संघरक्षा आदि करनेमें विरोधी हिंसा भी उससे हुमा ही करती है।
मात्मरक्षाके लिये ही जैन गृहस्थ अपने पास तलवार, बन्दूक मादि हथियारों के साथ साथ लाठी भी रखते हैं क्योंकि लाठी भी
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