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दो शुद्ध
भारतीय चिन्तन के अध्यात्म के इतिहास में श्रमण एवं वैरिक विकारधारा प्रायः समानान्तर रूप से प्रवाहित हुई है। दोनों ने क्रमशः पुरुषार्थ और भक्ति के मार्ग को प्रमुखतः अपना कर मुक्ति के मार्ग का प्रवर्तन किया है। नैतिक गुणों और सदाचार की प्रतिष्ठा दोनों में है; किन्तु श्रमण परम्परा को जैन विचारधारा ने ध्यान और साधना के क्षेत्र में विशेष बल दिया है। यही कारण है श्रमण' परम्परा में तपस्या और प्रारमशामाकी अधिक प्रतिष्ठा है। श्रमण संघ और तपः पूसा प्राचार्यो की अनवरत शृङ्खला है। श्रीमान जोधसिंहजी मेहता ने अपनी इस लघु पुस्तिका 'श्रमण-परम्परा की रूपरेखा' में संक्षेप में श्रमण-परम्परा के उन्हीं प्राचार्यों एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियों का परिचय दिया है, जिन्होंने जैन संस्कृति के उन्नयन में अपना जीवन यापन किया है। श्री मेहता का यह लघु प्रयास पाठकों को श्रमण संस्कृति के विविध पक्षों से परिचित कराता है तथा प्रेरित करता है कि भारतीय संस्कृति को जानने के लिए श्रमरण संस्कृति को गहराई से देखा, परखा जाय । श्री मेहता ने इस पुस्तक में पारम्परिक एवं ऐतिहासिक दोनों प्रकार की सामग्री का प्रयोग किया है।
वस्तुतः सामाजिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर ही नहीं, अपितु भारतीय दर्शन के विकास के क्षेत्र में भी श्रमण संस्कृति के चिन्तकों ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। प्रात्मा के स्वरूप एवं उसके विकास की विभिन्न स्थितियों, ज्ञान के विभिन्न प्रकारों, प्रमाण और नयों का सिद्धान्त चर्चा में प्रयोग, ध्यान पौर योग की साधनाएँ तथा जगत् के वास्तविक स्वरूप का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रादि के सम्बन्ध में तीर्थंकरों एवं जैन प्राचार्यों ने अपना गहन चिन्तन मनन प्रस्तुत किया है। उससे भारतीय दर्शन की विचारधाराएं कब और कैसे प्रभावित हुई हैं, दोनों विचारधाराओं का समन्वित स्वरूप क्या उभर कर आया है, आदि के क्रमबद्ध इतिहास लिखे जाने की आवश्यकता है । तभी श्रमण परम्परा का वास्तविक स्वरूप उजागर हो सकेगा।
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