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पर 'समराईच्च कहा' ग्रन्थ लिखा और जैन दर्शन का समन्वयात्मक दृष्टिकोण से अवलोकन कर उसको पराकाष्ठा पर पहुँचाया। उन्होंने प्रत्येक दर्शन में रहे हुए सत्य का दर्शन किया अर्थात् स्याद्वाद रप्टि रखी जैसे कि उनके द्वारा लिखित श्लोक में प्रगट होता है।
'पक्षपातो न मे वीरो, न देषः कपिलादिषु, _ युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रह ।" .. . . पोरवालों को जैन धर्म में दीक्षित करने का श्रेय श्री हरिभद्र मूरि को है । पिटर्स न और भण्डारकर की रिपोर्ट के आधार पर तथा प्राचीन प्राचार्यों के मतानुसार उनका काल वी. स. 1005 ( वि स. 535-ई स. 478 ) से वी. स 1055(वि स. 585----ई स 528) के बीच का माना गया है किन्तु अब इन्हें बिक्रम की 8 वीं शताब्दी का विद्वान निर्धारित किया है। .... इसी समय दिगम्बर जैनाचार्य ( जन्म- वी. सं 1275 शक संवत् 670-वि. सं 805 ई. स. 748 के लगभग ) वीर सेन हुए जिन्होंने 'जयधवला' ( 60,000 श्लोक प्रमाण ) और 'धवला' ( 72,000 श्लोक प्रमाण ) पर टीकाएं लिखी हैं तथा जिन सेन दिगम्बर प्राचार्य ने 'पार्वाभ्युदय' और 'आदि पुराण' (ऋषभ व 23 तीर्थकरों के चरित्र-12,000 श्लो० परिमित ) लिखा । इनका जन्म वी. स. 1290 ( शक संवत् 685-वि. स. 820-ई. स. 763 ) के करीव माना जाता है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर प्राचार्यों ने वी. स. की 16 वीं सदी (विक्रम की 11 वीं सदी ) में विशाल साहित्य प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में लिखा है।
वी. सं. 1550 ( वि. स. 1080-ई. स. 1023 ) में, प्राचार्य जिनेश्वर सूरि के भाई प्राचार्य बुद्धिसागर सूरि जो प्रतिभावान् और मर्मज्ञ श्रमण हो गये हैं, जाबालिपुर में संस्कृत भाषा में 7000 श्लोक परिमित एक 'पंच ग्रन्थी'1 व्याकरण लिखी जिससे वे जैन समाज के वैयाकरण कहे जा सकते हैं। 1. Jainism in Rajasthan. Dr. K. C. Jain, P. 172
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